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महिला दिवस भी हिन्दी दिवस की तरह है


भारत में अच्छे भले उद्देश्य भरे किसी  भी काम को कैसे निरूद्देशीय खाली-पीली बाते बनाने में बदला जाता है,
अंतर्राष्ट्ररीय महिला और हिन्दी दिवस इसका प्रमाण 8 मार्च को होने वाला अंतर्राष्ट्ररीय महिला दिवस है। 

इस महिला दिवस पर तमाम तरह की संगोष्ठियां आयोजित की जाती है, महिला सशक्तिकरण का ढोल पीटा जाता है, तरह तरह के वादे किये जाते हैं। इन सब कामों में पूरुष ज्यादा बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। 

ऐसा दिखाया जाता है मानों समाज महिलाओं के लिये कितना चिन्तित है और कितना कुछ करना चाहता है। देखिये आज महिला दिवस पर सबसे ज्यादा पुरुष चिठ्ठाकारों  ने ही महिला दिवस पर लिखा है। 

राजनैतिक पार्टियां बतायेंगी कि कैसे वो महिलाओं के उत्थान के लिये वचनबध्द हैं, लेकिन चुनावों में महिलाओं के टिकट देने की बारी आयेगी तो बताया जायेगा कि जीतने वाले उम्मीदवारों को ही टिकट दिया जायेगा। 

कहने का मतलब ये है कि किसी की दिलचस्पी इस में नहीं है कि कैसे इस देश में महिलाओं को उनका उचित स्थान मिले, उचित अवसर मिलें, बल्कि इस बात में है कि वो कैसे ज्यादा महिला हितैषी दिखें। 


इसी वजह से  महिला दिवस भी हिंदी दिवस की ही तरह से हो गया है जिसको मनाने के अगले ही दिन से लोग भुल जाते हैं और अपने पुराने ढर्रे पर आ जाते हैं। बिना महिलाओं की तरक्की क्या देश आगे बढ़ सकता है? 

महिलाओं के उत्थान की बात करने वालों के पास पच्चीस प्रतिशत वाले समुदाय की महिलाओं की तरक्की के बारे में कोई योजना नहीं होती है मानो उनका विकास जरुरी नहीं है। 

पूरे साल महिलाओं को अपने अधिकारों के लिये संघर्ष करना पड़ता है। अगर समाज के लोग केवल एक दिन याद न रखकर पूरे साल ईमानदारी से अपनी बातों पर अमल करें तो वाकई कुछ ही सालों में बहुत परिवर्तन आ सकता है।

Manisha रविवार, 8 मार्च 2009

गांधी के विचारों को भी तो बचाईये


गांधी महात्मा गांधी की निजी वस्तुओं को जिसमें उनका चश्मा, जेब घड़ी, चप्पलें, एक प्लेट और एक कटोरी शामिल है, को अमेरिकी में नीलामी किये जाने के खिलाफ भारत सरकार काफी प्रयत्न कर रही है कि किसी तरह ये नीलामी रुक जाये और गांधीजी की विरासत जो कि देश की धरोहर है देश में वापस आ जाये। 

लेकिन नीलामकर्ता ने  नीलामी रोकने के लिए भारत सरकार के सामने कड़ी शर्तें पेश की हैं जिनमें अपनी प्राथमिकता बदलकर सैन्य खर्च के बजाय विशेष तौर पर निर्धनतम लोगों को स्वास्थ्य सुविधा दिए जाने की शर्त शामिल है। 

सरकार का और उस पर इस नीलामी को रोकने के लिये दबाब डालने नालों का ये प्रयास सराहनीय है लेकिन ये और भी सराहनीय होगा यदि सरकार और सब लोग मिल कर गांधीजी के विचारों को बचायें। हो ये रहा है कि गांधी जी की वस्तुयें बचाई जा रही हैं और उनके विचारों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं।


गांधी जी शराब के सख्त खिलाफ थे और शराब के खिलाफ जीवन पर्यन्त संघर्ष करते रहे पर अब सरकार ही शराब की दुकानें खुलवा रही हैं। जिस कांग्रेस को गांधीजी ने शराब के विरोध में लगाया था उसके मंत्री अब पब भरो आन्दोलन चलाना चाहते है। गांधीजी ने दुनिया को अहिंसा सिखाई पर हमारे देश मे अब हिंसा से समाधान खोजे जाते हैं। लोग अपनी बात मनवाने के लिये पिटाई का सहारा ले रहे हैं। बात बात पर लोग लड़ने पर उतारु हो जाते हैं। 

गांधी जी देश के गांवो की और देश की स्वावलंबन की बाते करते थे, हम वापस दूसरे देशो की कंपनियों को आमंत्रित कर रहे हैं।  गांधी जी के विचारों का मजाक बनाना मध्यम वर्ग का शौक है। गांधी को मजबूरी का नाम बताया जाता है। 

ऐसे कृतघ्न राष्ट्र में पहले गाधी जी और उनके विचारों की रक्षा होनी चाहिये फिर हमें उन से जुड़ी हुई वस्तुओ के बारे में सोचना चाहिये, ये नही कि बस नाम के लिये हल्ला मचा कर नीलामी रोक ली और फिर गांधीजी को भूल गये।

Manisha गुरुवार, 5 मार्च 2009

कमेंट मोडरेशन अब जरुरी है


उच्चतम न्यायालय के इस फैसले के बाद कि किसी भी ब्लॉग पर किसी भी प्रकार कंटेंट के लिये वो ब्लोगर ही जिम्मेदार माना जायेगा, सभी चिठ्ठारों को सावधान रहने की जरुरत है। हम लोग अपने चिठ्ठे पर जो कुछ भी लिखते हैं उसके लिये जिम्मेदार माने जायें, ये बात तो ठीक है और इसके लिये  कोर्ट के निर्देश अभी तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आजादी को सीमित करते दिखते हैं, लेकिन फिर भी ठीक है। इसकी व्यापक व्याख्या तो कानूनविद पूर्ण रुप से करेंगे और यह जरुरी भी है कि जल्दी ही इस बारे में सारे संशय दुर हो जाने चाहिये।
 

लेकिन ये बात कि किसी भी ब्लॉग, साइट या फोरम पर होने वाले किसी भी कमेंट के लिये उस साइट, ब्लॉग को चलाने वाला जिम्मेदार माना जायेगा, बहुत ही खतरनाक है। इस तरह तो किसी भी चिठ्ठ् पर, वेबसाइट पर या फोरम साइट पर जो कुछ लोगो द्वारा लिख जा रहा है उसका जिम्मेदार उसको चलाने वाला माना जायेगा। अत:  अब ये जरुरी हो गया है कि सभी चिठ्ठाकर अब अपने चिठ्ठे पर कमेंट मोडरेशन को लागू करें व सभी प्रकार की टिप्पणियों पर नजर रखें। वर्ना कभी भी किसी को लगा कि उसकी भावनायें आहत हो रही हैं तो वो परेशान कर सकता है।

Manisha गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

हमारे ये स्वयंभू ठेकेदार


वर्षों पहले जब हम छोटे थे तब पंजाब में आतंकवाद का दौर था और आये दिन निर्दोष जनता, पुलिसवाले तथा कुछ आतंकवादी मारे जाते थे। ऐसे समय में एक आदमी जगजीत सिंह अरोड़ा अपने आप को खालिस्तान नाम के देश का स्वयंभू राष्ट्पति घोषित कर के आराम से इंग्लैंड मे रहता था। जब खालिस्तान का आतंकवाद समाप्त हो गया तो इनका भी नशा उतर गया और एक आम आदमी की तरह भारत आ गये और अब कहां हैं कुछ पता नहीं। इसी प्रकार चंबल के कुछ डाकू उस समय अपने आप को दस्यु सम्राट कहलाना पसंद करते थे। जब दस्यु समस्या खत्म हो गई तो ये स्वयंभू  दस्यु सम्राट भी गायब हो गये। इसी तरह हर महिला डाकू अनिवार्य रूप से दस्यु रानी कहलाती थीं।

ऐसे ही  लोग अलग-अलग स्वयंभू  ठेकेदारी की ऐसी कई दुकानें इन दिनों  चल रही हैं :

  • भारत की संस्कृति के ठेकेदार -  इस तरह की ठेकेदारी की दुकान कई लोग चला रहे हैं। विश्व हिंदु परिषद, बजरंग दल, शिवसेना तथा आजकल चर्चा में श्रीराम सेना। भारत की संस्कृति की रक्षा ये लोग भारत की सभ्यता और संस्कृति की धज्जियां उड़ा कर करते हैं। इनको खुद को भारत की भारत की संस्कृति का ज्ञान नहीं है लेकिन भारत की संस्कृति के स्वयंभू  ठेकेदार   हैं। 
  • प्रगतिशीलता के स्वयंभू ठेकेदार -   कुछ लोग भारत में प्रगतिशीलता और आधुनिकता के स्वयंभू ठेकेदार  हैं जिनमें पत्रकार खास कर अंग्रेजी मीडिया के, पेज थ्री की सोशलाइट्स तथा वो लोग शामिल हैं जो भारत की परंपरागत सभ्यता, संस्कृति, भाषा आदि बिलकुल भी पसंद नहीं है। इस तरह के स्वयंभू प्रगतिशील  लोग संस्कृति सभ्यता के ठेकेदारों का विरोध करने के लिये शराब, पब, कोकीन की रेव पार्टियां, कम कपड़े पहनने का रिवाज, समलैंगिकता इत्यादि किसी भी बात के जबर्दस्त समर्थन करते हैं, इनके लिये सामाजिक मान्यतायें इत्यादि कुछ मायने नहीं रकती हैं।
  • धर्मनिरपेक्षता के स्वयंभू ठेकेदार -  ये एक ऐसी ठेकेदारी है जिसे हर कोई करना चाहता है और हर कोई धर्मनिरपेक्षता का स्वयंभू ठेकेदार बना फिरता है और अपने को धर्मनिरपेक्षता का और दूसरों को सांप्रदायिक होने का प्रमाणपत्र फटाफट जारी कर देता है। लगभग सारे ही पत्रकार, वामपंथी पार्टियां, सभी जातिवादी दल, मौका परस्त दल इत्यादि इसमें हैं। भारत में ये सबसे बड़ी स्वयंभू  ठेकेदारी है । आप कैसे भी घोटाले कीजिये, जातिवादी राजनीति करिये, दलबदल करिये, विशेष धर्म को आरक्षण की मांग करिये,  विशेष धर्म  की सारी सही-गलत बातों को मानिये आप धर्मनिरपेक्षता के स्वयंभू ठेकेदार बने रहेंगे।
  • हिंदुओं के ठेकेदार – हिंदुओं के भी कई स्वयंभू ठेकेदार हैं। भाजपा, शिवसेना, विश्व हिंदु परिषद, बजरंग दल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, आर्य समाज इत्यादि हिंदुओं के स्व घोषित ठेकेदार हैं। इन्हें हिंदुओं के हित से ज्यादा दूसरे धर्मो इत्यादि के मामले में बोलने की आदत है। हाल ही में उड़ीसा के एक मंदिर मे एक मंत्री के दर्शन करने के बाद मंदिर को धोने जैसी कलंकित घटना पर इनकी जुबान नहीं चली और ऐसी घटना भविष्य में न हो, इसके लिये कोई  प्रयास नहीं किया गया लेकिन दूसरे धर्म से संबंधित कोई बात हो फिर देखिये कैसे कैसे बयान आते हैं।
  • मुस्लिमों के ठेकेदार – इस तरह के ठेकेदार मुसलमानो को हमेशा बताते रहते हैं कि देखो तुम्हारा भला हमारे साथ रहने में ही है वर्ना तुम खतरे में हो। मुसलमानों  को ये कभी नहीं बताते कि अच्छी पढ़ाई लिखाई करो, जागरुक बनो, तरक्की करो, आर्थिक रुप से सक्षम बनो लेकिन उनको उर्दू के नाम पर, आरक्षण दिलाने के नाम और उनकी पहचान खत्म होने के खतरे के नाम पर बरगलाते  रहते हैं।
  • मानवाधिकारों के स्वयंभू ठेकेदार –  इस तरह की ठेकेदारी के भी कई  स्वयंभू ठेकेदार  घूम रहे हैँ। इस तरह के ठेकेदारों की ठेकेदारी हमेशा अपराधियों, आतंकवादियो के मानवाधिकारों के नाम होती है। बटाला हाउस में हर ऐसा मानवाधिकारों का हर स्वयंभू ठेकेदार  हो आया, लेकिन हाल ही में महाराष्ट्र के गढ़चिरोली में नक्सलियों द्वारा मारे गये 15 पुलिसवालों के लिये किसी मानवाधिकारी ने एक भी बयान नहीं दिया और न हीं कोई फैक्ट फाइंडिंग टीम भेजी। मानवाधिकारों की  ठेकेदारी करने से अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होते हैं और  दुनिया भर में भाषण देने के लिये बुलाया जाता है। 
  • भारत-पाक की शांति के स्वयंभू ठेकेदार – भारत और पाकिस्तान की शांति की बाते करने की ठेकेदारी भी बड़ी मजेदार है। ऐसे लोग भारत-पाक की सीमा पर मोमबत्तियां जलाकर और एक दूसरे के देश में मुफ्त में प्रायोजित दौरे करते रहते हैं और बार बार बताते है कि दोनो देशों में कितनी समानतायें हैं, खाना एक है, बोली एक है, जुबान एक है इत्यादि- इत्यादि। 
  • कश्मीर के ठेकेदार – कश्मीर की जनता ने भले ही हाल के विधानसभा चुनावों में भारी मात्रा में भाग लेकर इनको नकार दिया हो लकिन ऑल पार्टी हुरियत कांफ्रेंस कश्मीर के सबसे बड़े स्वयंभू ठेकेदार  हैं। इन्होने आजतक किसी भी चुनाव में भाग नहीं लिया लेकिन कश्मीर का जनता की नुमाइंदगी की पूरी ठेकेदारी इनकी है। ये भारत-पाकिस्तान के बीच के कश्मीर विवाद के स्वयंभू तीसरे पक्षकार हैं। 
  • युवाओं के स्वयंभू ठेकेदार -  कांग्रेस के भावी प्रधानमंत्री राहुल गांधी आजकल युवाओं को आगे बढ़ाने के नाम पर युवाओं के नयें स्वयंभू नेता बन रहे हैं। 
  • जातियें के ठकेदार – कुछ लोग अपनी राजनीति की दुकान विभन्न जातियों के स्वयंभू नेता बन कर चलाते हैं। इस तरह के नेता उन जातियों के ऊले की कोई बात नहीं करते हैं, उनको आगे बढ़ाने की कोई कोशिश नहीं करते हैं लेकिन चुनाव में उनके थोक में वोट पाने के लिये उनको स्तेमाल करते हैं।
  • ब्लागिंग के स्वयंभू – हिंदी और अंग्रेजी चिठ्ठाकारी में भी कई स्वयंभू घोषित लोग हैं, कोई भारत का पहला स्वयंभू प्रोफेशनल ब्लोगर है, कोई हिंदी का पहला स्वयंभू चिठ्ठाकार है, कोई रेल में बैठ कर चिठ्ठाकारी करने वाला पहला स्वयंभू ब्लोगर है, कोई हवाई जहाज से लिखने का पहला ब्लोगर है, कोई बताता है कि हिंदा चिठ्ठाकारी में स्तरीय लेखन नहीं होता है और बताता है कि कैसा लेखन होना चाहिये।
इस तरह के स्वयं घोषित लोग आप को हर क्षेत्र में मिल जायेंगे। अगर कोई क्षेत्र बचा रह गया हो तो फटाफट अपने आप को उस क्षेत्र का स्वयंभू चैंपियन घोषित कर दीजिये।

Manisha शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009

मैकाले की शिक्षा का विकल्प क्या है? 


श्रीमान जी.कें. अवधिया जी ने अपने चिठ्ठे धान के देश में मैकाले द्वारा भारत के विषय में उसके विचार तथा मैकाले के द्वारा भारत में प्रारम्भ की गई शिक्षा प्रणाली के बारे में कहा गया है। 

मैं बचपन से समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में इस तरह के लेख पढ़ती आ रही हूं जिनमें यह बताया जाता रहा है कि मैकाले ने भारत में अंग्रेजी शासन को मजबूत करने और भारत के लोगों को क्लर्क बनाने लायक ही शिक्षा देने के उद्देश्य से ऐसी शिक्षा-प्रणाली लागू करी जिसे भारत में लोगों का नैतिक ह्रास हो गया और केवल क्लर्कों की फौज तैयार हो गई। 

हो सकता है ये सही बात हो, क्योंकि अंग्रेज शासक थे और वो अपने हिसाब से ही शिक्षा देना चाहते थे। 

लेकिन मुझे आज तक कोई ऐसा लेख पढ़ने को नहीं मिला जो मैकाले से पहले की शिक्षा-प्रणाली के बारे में विस्तार से बताये और साथ ही ये भी बताये कि अगर मैकाले की शिक्षी-प्रणाली में इतनी खराबियां हैं तो उसकी वैकल्पिक शिक्षा-प्रणाली क्या हो? 

विद्वान लोग इस बारे में कुछ बता पायें को कुछ पता चले।  


मैंने तो ये देखा है कि यहां पर कई तरह कि शिक्षा दी जा रही है, मदरसों की, आरएसएस की, राज्यों के बोर्डों की, केन्द्रीय सीबीएसई की, आईसीएससी की, गरीबों की अलग और मंहगे पब्लिक स्कूलों और बोर्डिंग स्कूलों की अलग। 

अगर ये सब मैकाले का ही सिस्टम लागु कर रहे हैं तो इन्हीं में से तो हमारे इंजीनियर, डाक्टर, शिक्षाविद, अर्थशास्त्री इत्यादि निकल रहे है जो पूरी दुनिया में काम पाते हैं और तीसरी दुनिया के कई देशों के बच्चे इसी शिक्षा के लिये भारत आते हैं। 

कहीं ऐसा तो नहीं कि हमें पूरी प्रणाली को बदलने  के बजाय उसको स्तरीय बनाना चाहिये। आप लोग बतायें कि आखिर हमारी शिक्षा-प्रणाली कैसी होनी चाहिये?

Manisha सोमवार, 26 जनवरी 2009

गणित का प्रश्न : राजनीति में कौन किसके साथ है?


आगामी लोकसभा चुनावों को लेकर राजनीतिक दांव-पेंच, उठा पटक और आरोप प्रत्यारोप का दौर जारी है। आम मतदाता के लिये भ्रम की स्थित बन रही है। आइये देखिये कि क्या स्थिति है : 

Indian Parliament भारतीय संसद

  •  समाजवादी पार्टी की कहना है कि भाजपा और बसपा मिले हुये हैं।
  • बसपा का कहना है कि कांग्रेस, सपा और भाजपा मिले हुये हैं।
  • भाजपा का आरोप है कि कांग्रेस के इशारे पर बसपा वरुण गांधी पर रासुका लगा रही है।
  • मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस से बिना समझौते के अलग चुनाव लड़ रही है लेकिन संयुक्त प्रगतिशील मोर्चे (संप्रग - UPA)  को उसका समर्थन है और उसका कहना है कि देश में धर्मनिरपेक्षी सरकार बिना कांग्रेस के नही बन सकती। 
  • लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान के दल बिहार में कांग्रेस को हटाकर अलग से चुनाव लड़ रहे हैं लेकिन संप्रग  के घटक दल हैं।
  • लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान के दल संप्रग  के घटक दल  हैं लेकिन मुलायम सिंह यादव के साथ मिलकर एक नया चौथा मोर्चा भी बना लिया है
  • अन्नाद्रमुक की जयललिता कांग्रेस के साथ जाना चाहती हैं और भाजपा को खुश करने के लिये कुछ कुछ हिन्दुत्व समर्थक बयान भी जारी कर देती हैं।
  • शरद पवार का दल संप्रग  का घटक दल है लेकिन वो खुद भी प्रधानमंत्री बनना चाहते है
  • वामपंथी दल अब संप्रग  के घटक दल नहीं हैं, अलग से चुनाव लड़ रहे हैं लेकिन चुनावों के बाद परिस्थितियों को देखते हुये सरकार में शामिल हो सकते हैं।
  • मायावती की पार्टी तीसरे मोर्चे के साथ भी है और देश भर में अकेले चुनाव भी लड़ रही है।


मेरी तो समझ में नही आ रहा कि कौन किसके साथ है?  कोई बता सकता है कि कौन सी पार्टी किस से मिली हुई है और किसके विरोध में है। यह एक गणित का प्रश्न का बन गया है कि राजनीति में कौन किसके साथ है।

Manisha रविवार, 4 जनवरी 2009

वॉग मैगजीन अब भारत में भी


अपनी पसंद की मैगजीन फेमिना लेने पास के ही स्टाल पर जाना हुआ तो देखा कि वॉग (Vogue) भी नई पत्रिकाओं की भीड़ में रखी है। बुक स्टाल वाले ने बताया कि ये अब यहां भी शुरु हो गई है। 

उत्सुकतावश वॉग का पहला संस्करण तो खरीद लिया ये देखने के लिया कि आखिर इस मैगजीन की इतना नाम है, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कई देशों में छपती है, चलो देखते हैं। 
 

पहला संस्करण 356 पेज का मोटा सा 100/- की कीमत का है। 

अधिकांश पत्रिका मंहगी चीजों और विलसिता वाली चीजों के विज्ञापनों से भरी हुई है। ज्यादातर विज्ञापन मंहगी घड़ियों के हैं। 

विदेशी पत्रिकायें अब एक एक करके भारत में आती जा रही हैं। वॉग के मुकाबले के लिये पहले से ही कोस्मोपोलिटन (Cosmopolitan) पत्रिका भारत में छप रही है। 

इन विदेशी पत्रिकाओं का मुकाबले के लिये भारत की पत्रिकाओं वुमेन्स ऐरा (Women's Era) और फेमिना (Femina) ने भी अपना स्तर बढ़ा लिया है। 

ये भी अब मोटी मोटी आने लगी हैं। 

अब पढ़ने वालों के पास ज्यादा विकल्प हैं।

Manisha बुधवार, 17 अक्तूबर 2007

लोकसभा टीवी - एक स्तरीय समाचार चैनल


हाल के दिनों में लोकसभा टीवी को देखने का मौका मिला। हमारे केबल टीवी पर लोकसभा टीवी नहीं आता था। केवल टीवी के खराब प्रसारण से परेशान होकर हमने अब टाटा स्काई लगवा लिया है। 

केबल के मुकाबले इसमें पिक्चर और आवाज दोनों ही केबल के मुकाबले बहुत अच्छे हैं। 
Loksabha TV टाटा स्काई पर लोकसभा टीवी आता है। इसको घर में कोई नहीं देखता था। 

चैनल सर्फिंग में इसे छोड़कर सब आगे बढ़ जाते थे। सब यही सोचते थे कि ये एक और सरकारी चैनल है जो कि लोकसभा कि कार्यवाही को दिखाने के लिये शुरु किया गया है। ये भी दूरदर्शन का तरह ही होगा। 

एक दिन समाचार पत्र में लोकसभा टीवी पर पेस्टनजी फिल्म के आने का विज्ञापन देखकर पता चला कि इस चैनल पर हिंदी फिल्में भी आती हैं। 

मुझे और मेरे पतिदेव दोनों को ही आर्ट फिल्में कुछ ज्यादा ही पसंद आती हैं। 

तो जाहिर है कि हमने पेस्टनजी पिक्चर का आनन्द लिया। 

अब चैनल सर्फिंग के दौरान लोकसभा टीवी पर कुछ देर रुका जाने लगा। अगले ही हफ्ते लोकसभा टीवी लोकसभा टीवी पर धारावी फिल्म को दिखाया गया। 

ये फिल्म भी शौक से देखी गयी और अच्छी भी बहुत लगी। लोकसभा टीवी पर इन फिल्मों को शनिवार की रात 9.30 बजे और दुबारा रविवार को दिन में 2.00 बजे से दिखाया जाता है।



इन फिल्मों को देखने के दौरान और बाद में लोकसभा टीवी पर हमने कई और प्रोग्राम देखे। देखने के बाद पता चला कि लोकसभा टीवी दूरदर्शन की छाया से मुक्त है। 

इस पर न तो प्राइवेट चैनलों की तरह टीआरपी की आपाधापी में दिखाये जाने वाले सांप-सांपिन, नाच और अपराध के समाचार हैं और न हीं दूरदर्शन के जैसे थकाउ प्रोग्राम। इस पर न केवल स्तरीय प्रोग्राम हैं बल्कि सामयिक विषयों पर कई अच्छे प्रोग्राम हैं। 

हालांकि बड़ो को ये प्रोग्राम देखने चाहिये, लेकिन बच्चों के लिये तो लोकसभा टीवी बहुत ही उत्तम है क्योंकि इसके कार्यक्रमों का स्तर न केवल अच्छा है बल्कि साफ सुथरा भी है और ज्ञानवर्धक तो हैं हीं। 

प्रतियोगी परीक्षा के दावेदारों के लिये सामान्य ज्ञान बढ़ाने के लिये लोकसभा टीवी सही माध्यम है। हमारे घर में सबको लोकसभा टीवी हिंदी के बाकी समाचार चैनलों के मुकाबले ज्यादा अच्छा लगता है 

और इसको अब नियमित रुप से देखा जा रहा है। एक जमाना था जम हम लोग सरकारी समाचार चैनल दूरदर्शन से परेशान होकर निजी समाचार चैनलों पर गये थे और अब उन से परेशान होकर वापस सरकार के ही चैनल को अच्छा पा कर उसे देख रहे हैं।

लोकसभा टीवी के कार्यक्रम वेबकास्ट के जरिये भी यहां देखे जा सकते हैं। कार्यक्रमों की समय-सारणी यहां उपलब्ध है।

Manisha शुक्रवार, 21 सितंबर 2007
शिफ्ट की नौकरी से कम होती जिंदगी

जिंदगी कम करती शिफ्ट की नौकरी


प्रेस ट्रस्ट की एक खबर के अनुसार शिफ्ट में काम करना खतरनाक है। 

अगर आपकी शिफ्ट (पाली) जल्दी-जल्दी बदलती है तो थोड़ा संभल जाएं। 

शिफ्ट में जल्दी बदलाव आपकी सेहत के लिए ठीक नहीं है। इससे आप बीमारी के शिकार हो सकते हैं, जो आपकी जिंदगी छोटी कर सकती है। 

एक नए अध्ययन से पता चला है कि शिफ्टों में काम करने वालों की जिंदगी सामान्य पाली में काम करने वालों की अपेक्षा छोटी हो जाती हैं। 

रायपुर के पंडित रविशंकर शुक्ला विश्वविद्यालय में स्कूल आफ लाइफ साइंसेज के अतनु कुमार पाती द्वारा किए गए अध्ययन में यह बात सामने आई है। 

उन्होंने नागपुर में दक्षिण पूर्व मध्य रेलवे के दिन में काम करने वाले 3,912 तथा पालियों में काम करने वाले 4,623 कर्मचारियों पर यह अध्ययन किया। इसमें पता चला कि दिन में काम करने वाले व्यक्तियों का जीवनकाल पालियों में काम करने वाले अपने समकक्षों से 3.94 साल ज्यादा होता है। 

दिन में काम करने का मतलब है सुबह नौ से शाम छह बजे तक की पाली। इसमें एक बजे से एक घंटे का भोजनावकाश शामिल है। जबकि, पालियों में काम करने वाले लोगों की शिफ्ट रोटेट होती रहती है।

Manisha सोमवार, 23 अप्रैल 2007

भारतीय बचत नहीं करते


एक सर्वेक्षण के अनुसार ज्यादातर भारतीयों में धन की बचत करने की प्रवृत्ति नहीं होती। अपनी इस आदत के कारण आय के स्त्रोत समाप्त होने की स्थिति में उनके सामने गंभीर आर्थिक संकट पैदा हो जाता है। 
नेशनल काउंसिल फॉर अप्लाइड इकनोमिक रिसर्च के इस सर्वेक्षण ने इस मिथक को तोड़ दिया है कि भारतीय विशेषकर गुजराती समुदाय पैसों की बचत करने वाले होते हैं।

मैक्स न्यूयार्क लाइफ (एमएनवाईएल) के अनुसार देशभर में 63000 लोगों के बीच किए गए सर्वेक्षण में पाया गया है कि पैसा बचाने की प्रवृत्ति नहीं होने के कारण कारण अधिकतर भारतीय उस समय संकट की स्थिति में फंस जाते हैं जब उनके मुख्य आय के स्त्रोत समाप्त हो जाते हैं। 

एमएनवाईएल के सहयोग से किए गए इस सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 96 प्रतिशत लोगों का कहना है यदि उनकी आय के प्रमुख स्त्रोत बंद हो जाएं तो वे अपनी बचत के सहारे एक साल से अधिक समय तक जीवन-यापन नहीं कर सकते हैं। 

गुजरात के बारे में सूद ने बताया कि राज्य में 96 प्रतिशत और अहमदाबाद में 98 प्रतिशत लोगों के समक्ष आय के स्त्रोत बंद होने की स्थिति में तत्काल आर्थिक संकट पैदा होने का खतरा है।

वैसे यह सर्वेक्षण पुरानी मान्यताओं को तोड़ता हुआ दिख रहा है। अभी तक को भारतीय अपनी आय में से कुछ न कुछ बचाने की कोशिश करते थे, खास कर व्यवसायी वर्ग तो बचत के लिये मशहूर हैं।

कड़ी : नेशनल काउंसिल फॉर अप्लाइड इकनोमिक रिसर्च की वेबसाइट

Manisha गुरुवार, 12 अप्रैल 2007