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बाढ़ आपदा प्रबंधन पर कैसे ध्यान दें और क्या करें? 


आजकल भारत में मानसून की बारिश का मौसम है। भारत के मौसम विभाग ने अप्रैल माह में ही बताया था कि भारत में इस बार अच्छी बारिश होगी। ऐसे में स्वाभाविक है कि इस समय वर्षा होगी कहीं कम और कहीं ज्यादा।

जहां ज्यादा बारिश होगी वहां बाढ़ का भी खतरा रहेगा। इस बाढ़ को लेकर हम हर साल समाचार पत्रों में और टीवी पर देखते रहते हैं। ये बाढ़ लोगों की जान और माल को भारी नुकसान पहुंचाती है। ऐसी खबरों को हर साल देख कर मन में ख्याल आता है कि शायद बाढ़ प्रबंधन पर कोई भी ध्यान नहीं दे रहा है। तो हमें बाढ़ आपदा प्रबंधन पर कैसे ध्यान देना चाहिये और क्या करें?

Flood Management
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बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र


इस समय भारत में बिहार, असम, अरुणाचल प्रदेश एवं उत्तर-पूर्व के कई क्षेत्रों में बिहार की बयावह स्थिति है। इसी बाढ़ के बीच मानसून की वजह से और रोजाना होने वाली और बारिश भी प्रशासन के सामने चुनौती बनी हुई है। भारी बारिश से देश के कई अन्य इलाकों भी में हाल खराब है।

मुंबई, दिल्ली, गुजरात, राजस्थान के कई इलाकों में भी बारिश होने से पानी भरने से कई जगहों पर बाढ़ आई हुई है।

ऐसे में मौसम विभाग द्वारा काफी इलाकों में भारी से भारी बारिश का अलर्ट जारी किया गया है। इससे हालात और खराब होने की संभावना है।

वर्तमान में भारत के कई क्षेत्रों के बारे में लगभग पहले से ही पता होता है कि बरसात के मौसम में थोड़ी सी ठीक बारिश होने पर बाढ़ आ सकती है। अब तो हालत ये हो गई है बाढ़ आपदा प्रबंधन न होने की वजह से बड़े बड़े शहरो जैसे कि चेन्नई, मुंबई, अहमदाबाद, श्रीनगर कहीं भी अचानक बाढ़ आ जाती है और जान माल का भारी नुकसान होता है।

भारत में प्रमुख बाढ़ क्षेत्रों में गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना और बिहार में नेपाल से लगता हुआ क्षेत्र जिसमें कोसी नदी का डूब क्षेत्र शामिल है। देश में नदियों के बहाव से आने वाली कुल बाढ़ का करीब 60 प्रतिशत इसी क्षेत्र में आती है।

देश के बाढ़ की सर्वाधिक आशंका वाले क्षेत्रों में पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के हिमालयी नदियों के थाले में आने वाले क्षेत्र शामिल हैं। जम्मू कश्मीर, पंजाब के कुछ हिस्से, हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश को कवर करने वाले कुछ उत्तर-पश्चिमी नदी थालों में भी बाढ़ की आशंका रहती है। झेलम, सतलुज, व्यास, रावी और चेनाब मुख्य नदियां हैं जो इस क्षेत्र में बाढ़ का कारण बनती हैं।

मध्य प्रदेश, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र मध्यवर्ती एवं प्राय:द्वीपीय नदी थालों के अंतर्गत आते हैं, जहां नर्मदा, ताप्ती, चम्बल और महानदी जैसी नदियां बाढ़ लेकर आती हैं। गोदावरी, कृष्णा, पेन्नार और कावेरी में भी भारी बाढ़ आने से विस्तृत भूभाग जलमग्न हो जाते हैं और बाढ़ की समस्या आमतौर पर गंभीर होती है।
राष्ट्रीय बाढ़ आयोग द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार देश में करीब चार करोड़ हेक्टेयर भूमि ऐसी है, जिसमें बाढ़ की आशंका रहती है। औसतन हर वर्ष करीब 80 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में वार्षिक बाढ़ आती है, जिससे करीब 37 लाख हेक्टेयर फसल क्षेत्र प्रभावित होता है।

एक अनुमान के अनुसार, देश में 60 प्रतिशत से अधिक नुकसान नदियों में आने वाली बाढ़ के कारण होता है। 40 प्रतिशत क्षति भारी वर्षा और तूफानों के कारण होती है। हिमालयी नदियां देश में होने वाले कुल नुकसान में करीब 60 प्रतिशत योगदान करती हैं।

प्रायद्वीपीय नदी थालों में अधिकतर क्षति चक्रवातों के कारण और हिमालयी नदियों में करीब 66 प्रतिशत नुकसान बाढ़ से और 34 प्रतिशत भारी वर्षा के कारण होता है। राज्यवार अध्ययन से पता चलता है कि देश में बाढ़ से करीब 27 प्रतिशत क्षति बिहार में, 33 प्रतिशत उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड मेें तथा 15 प्रतिशत पंजाब और हरियाणा में होती है।

भारत में अधिकतर बाढ़ भारी वर्षा या पर्वतीय और नदी धारा क्षेत्रों में बादल फटने के कारण आती है। एक दिन में करीब 15 सेंटीमीटर वर्षा होने पर नदियां उफनने लगती हैं। यह धारणा पश्चिमी घाटों के पश्चिमी तटवर्ती क्षेत्रों, असम और उप-हिमालयी पश्चिम बंगाल और भारत के गंगा के मैदानों को प्रभावित करती है।

क्या बाढ़ का कारण बारिश है?


भारत में आने वाली विभिन्न आपदाओं में बाढ़ सर्वाधिक सामान्य है और इसके संकट बार बार आते रहते हैं। परंपरागत दृष्टि से यह कहा जाता है कि बाढ़ आने के लिए भारी वर्षा जिम्मेदार है।

यह बात भारत के संदर्भ में विशेष रूप से लागू होती है जहां कृषि क्षेत्र के लिए मानसून अनिवार्य है। यह सार्वभौमिक सत्य है कि बाढ़ भारी वर्षा के कारण आती है, जबकि समूचे वर्षा जल को धारण करने की प्राकृतिक जलमार्गों की क्षमता से अधिक जल गिरता है।

परंतु, कुछ अन्य तथ्य भी हैं, जो यह सुझाव देते हैं कि बाढ़ हमेशा भारी वर्षा से ही नहीं आती है। हाल ही में यह नई और गंभीर आयाम वाली धारणा सामने आई है कि बाढ़ में मानव का भी योगदान है, जो मानव निर्मित आपदा में परिणत होता है।

इस तरह बाढ़ के दो पहलू हैं - प्राकृतिक और मानव निर्मित। मानव निर्मित घटक अत्यंत खतरनाक है जो प्राकृतिक घटकों के साथ मिल कर प्राकृतिक आपदा को अधिक घातक आयाम प्रदान करता है।

बाढ़ का कारण बनने वाले अप्राकृतिक घटकों में धरती का तापमान बढऩा, पर्यावरणीय ह्रास, नगरीय और खेती संबंधी उपयुक्त योजना का अभाव, उपलब्ध जमीन के प्रत्येक इंच पर अमीर होने का लालच, विशेषकर ऐसे क्षेत्रों में, जो वर्षा ऋतु के दौरान जल निकासी का मार्ग प्रदान करते हैं, आदि प्रमुख हैं।

अन्य अप्राकृतिक घटकों में तूफान या उष्णकटिबंधीय चक्रवात, सुनामी या सामान्य नदी स्तरों से ऊंची लहरें उठना शामिल हैं, जिनके कारण मुख्य रूप से तटवर्ती क्षेत्रों में भारी मात्रा में पानी जमा हो जाता है और व्यापक क्षेत्र डूब जाते हैं।

बांधों को क्षति पहुंचाने वाले भूकंप, खुश्क मौसम के दौरान भी, निम्नवर्ती धारा क्षेत्र में बाढ़ का कारण बन सकते हैं। लेकिन यह कोई नियमित घटना नहीं है और कभी-कभार ऐसा हो जाता है।

इधर हाल में मौसम वैज्ञानिकों को मानसून की पद्धति में अनियमितता का आभास हुआ है, जिसे देखते हुए यह आपदा घटक और भी चिंताजनक हो गया है।

वर्षा का मौसम तीन से चार महीने की अल्पावधि में अधिक संकेंद्रित रहता है, जिससे इन महीनों में नदियों में विनाशकारी बाढ़ आती है। कई बार देखा गया है कि पूरे महीने की बारिश उस क्षेत्र में 1-2-3 दिन में ही लगातार गिर जाती है, इससे क्षेत्र विशेष का बारिश का औसत तो बना रहता है लेकिन खूब सारी बारिश एक साथ होने से वहां पर बाढ़ आपदा का खतरा बन जाता है।

एक नया आयाम और भी है, जो पिछले कुछ वर्षों से दिखाई दे रहा है, कि बेमौसम की बरसातें होती हैं और यहां तक कि मॉनसून की जो परंपरागत अवधि है, उसमें भी बदलाव दिखाई देता

बाढ़ में योगदान करने वाले अन्य घटकों में नदी तल में वृद्धि, जो गाद और रेत जमने के कारण होती है, शामिल हैं, क्योंकि बरसों तक नदियों की सफाई के लिए कोई अभियान नहीं चलाया जाता है।

हिमालयी नदियां अपने साथ भारी सामग्री लेकर चलती हैं, जिसमें गाद और रेत की मात्रा बहुत अधिक होती है, जो अंतत: निचले जलग्रहण क्षेत्रों में जमा हो जाती है। नतीजतन नदियों की जलवहन क्षमता कम हो जाती है और निकटवर्ती क्षेत्रों में बाढ़ आ जाती है।

कई बार लोग नदियों के किनारे के क्षेत्रों में घर और अन्य निर्माण कर लेते हैं इससे भी नदी को बारिश के पानी को निकालने के लिये अधिक जगह नहीं मिल पाती है। नदियों में जल के मुक्त प्रवाह में तटबंधों, नहरों और रेलवे संबंधी परियोजनाओं के निर्माण के कारण भी रुकावट पैदा होती है।

2013 की उत्तराखण्ड की विनाशकारी बाढ़ इसी कारण से थी। इसका एक और गंभीर उदाहरण झेलम नदी है, जिसके किनारों पर श्रीनगर और अन्य कस्बेे स्थित हैं। दीर्घावधि वर्षा से नदी में आने वाले आकस्मिक और भारी जलप्रवाह को झेलम नियंत्रित नहीं रख पाती है, क्योंकि पिछले 5 दशकों से नदी क्षेत्र में एकत्र गाद और रेत की सफाई के लिए कोई प्रयास नहीं किए गए हैं।

बाढ़ के अन्य कारण


बाढ़ का एक बहुत बड़ा कारण नदी तल में वृद्धि, जो गाद और रेत जमना है, शामिल है, क्योंकि बरसों तक नदियों की सफाई के लिए कोई अभियान नहीं चलाया जाता है। हिमालयी नदियां अपने साथ भारी सामग्री लेकर चलती हैं, जिसमें गाद और रेत की मात्रा बहुत अधिक होती है, जो अंतत: निचले जलग्रहण क्षेत्रों में जमा हो जाती है।

नतीजतन नदियों की जलवहन क्षमता कम हो जाती है और निकटवर्ती क्षेत्रों में बाढ़ आ जाती है। नदियों में जल के मुक्त प्रवाह में तटबंधों, नहरों और रेलवे संबंधी परियोजनाओं के निर्माण के कारण भी रुकावट पैदा होती है। पिछले कई दशकों से नदी क्षेत्रो में एकत्र गाद और रेत की सफाई के लिए कोई प्रयास नहीं किए गए हैं।

वनों की कटाई का प्राकृतिक जलवायु परिवर्तन पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है, जिससे वैश्विक तापमान में इजाफा हो रहा है। पर्वतीय ढलानों पर वनों के काटने से मैदानों की ओर नदियों के प्रवाह में रुकावट आती है, जिससे उनकी जलवहन क्षमता पर असर पड़ता है, जिससे पानी तेजी से नीचे की तरफ आता है।

वनों के ह्रास के कारण भूमि कटाव की समस्या भी पैदा होती है क्योंकि वृक्ष पर्वतों की सतह को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और तेजी से नीचे आने वाले वर्षा जल के लिए प्राकृतिक बाधाएं पैदा करते हैं। नतीजतन नदियों का जलस्तर अचानक बढ़ जाता है, जिससे बाढ़ आती है।

शहरी क्षेत्रों में बाढ़ का मूल कारण यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों में अंधाधुंध पलायन हो रहा है, जिससे आवास और वाणिज्यिक गतिविधियों के लिए भूमि पर दबाव बढ़ता है। जमीन, विशेषकर ऐसे क्षेत्रों जो नदियों और उनकी सहायक नदियों के बाढ़ के पानी की परंपरागत निकासी का स्रोत होते हैं, पर अतिक्रमण रोकने में नगर प्राधिकारियों और यहां तक कि सरकारों की विफलता और अधिकतर मामलों में जटिलता से शहरों में अभूतपूर्व बाढ़ आती है।

देश के अधिकांश बड़े शहरों को जलभराव के खतरे का सामना करना पड़ रहा है। इसके कारणों में कुप्रशासन, आयोजना का अभाव, भूमि के अतिक्रमण संबंधी भ्रष्टाचार और अंधाधुंध अनधिकृत निर्माण शामिल है।

चेन्नई और श्रीनगर में पिछले दिनों आई अभूतपूर्व बाढ़ इसी तरह की बर्बरता का उदाहरण है। इससे पहले मुम्बई में भी इन्हीं कारणों से बाढ़ आई थी। आवास और आर्थिक कारणों के लिए बुनियादी ढांचे के निर्माण के नाम पर अनियोजित वाणिज्यीकरण से शहरों में प्राकृतिक आपदाओं को सहने की क्षमता कम होती जा रही है।

वर्तमान बाढ़ आपदा प्रबंधन


वर्तमान में कटाव नियंत्रण सहित बाढ़ प्रबंधन का विषय राज्‍यों के क्षेत्राधिकार में आता है। बाढ़ प्रबंधन एवं कटाव-रोधी योजनाएँ राज्‍य सरकारों द्वारा प्राथमिकता के अनुसार अपने संसाधनों द्वारा नियोजित, अन्‍वेषित एवं कार्यान्वित की जाती हैं। इसके लिये केंद्र सरकार राज्‍यों को तकनीकी मार्गदर्शन और वित्तीय सहायता प्रदान करती है।

पिछले कई बर्षों से देखने में आया है कि बाढ़ के पैटर्न में निश्चित रूप से परिवर्तन हुआ है, जो वर्षा की बदलती पद्धति से सम्बद्ध है। दशकों पहले मानसून मॉडल की तुलना में परिवर्तन स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रहा है।

प्रौद्योगिकी उन्नयन के चलते मौसम विशेषज्ञ या जिन्हें हम लोकप्रिय रूप में वैदरमैन कहते हैं, वे आज मानसून या अन्य मौसम स्थितियों की भविष्यवाणी लगभग शत प्रतिशत यथार्थ रूप में कर देते हैं। भारत का मौसम विभाग अब लगभग सही भविष्यवाणी कर पा रहा है। इससे केंद्र और राज्य, दोनों ही सरकारों को निश्चित रूप से आपदा प्रबंधन कार्रवाइयों को अंजाम देने के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है।

इससे न केवल असामान्य भारी वर्षा के कारण आने वाली बाढ़ से बल्कि बारिश की कमी के कारण पडऩे वाले सूखों से भी लोगों को निजात दिलाने की तैयारी जा सकती है।

परंतु, वैज्ञानिक साधनों से वर्षा पद्धतियों पर नियंत्रण करना या ऐसा कोई डिजाइन तैयार करना संभव नहीं है। अत: बाढ़ प्रबंधन के लिए परिवर्तित वर्षा पद्धतियों के अनुरूप बहु-आयामी रणनीति अपनाने की आवश्यकता है।

वनों के ह्रास को रोकने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा गंभीर प्रयास किए जा रहे हैं। अनेक हिमालयी राज्यों में पिछले दशकों के दौरान वनों का राष्ट्रीयकरण किया गया है ताकि पेड़ों की अंधाधुंध कटाई पर रोक लगाई जा सके।

सभी स्तरों पर पौधे लगाने या वनरोपण के व्यापक अभियान चलाना भी सही दिशा में एक कदम है। बाढ़ नियंत्रण के संदर्भ में इन उपायों का अपेक्षित लाभ तभी मिल सकता है जबकि वैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर सतत और दीर्घावधि योजना के अनुसार ये प्रयास जारी रखे जाएं।

अतिक्रमण रोकने में नगर प्राधिकारियों और यहां तक कि सरकारों की विफलता और अधिकतर मामलों में जटिलता से शहरों में अभूतपूर्व बाढ़ आती है। देश के अधिकांश बड़े शहरों को जलभराव के खतरे का सामना करना पड़ रहा है। इसके कारणों में कुप्रशासन, आयोजना का अभाव, भूमि के अतिक्रमण संबंधी भ्रष्टाचार और अंधाधुंध अनधिकृत निर्माण शामिल है।

चेन्नई और श्रीनगर में पिछले दिनों आई अभूतपूर्व बाढ़ इसी तरह की बर्बरता का उदाहरण है। इससे पहले मुम्बई में भी इन्हीं कारणों से बाढ़ आई थी। आवास और आर्थिक कारणों के लिए बुनियादी ढांचे के निर्माण के नाम पर अनियोजित वाणिज्यीकरण से शहरों में प्राकृतिक आपदाओं को सहने की क्षमता कम होती जा रही है।

यदि सम्बद्ध अधिकारियों ने निहित स्वार्थों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की होती और बाढ़ से होने वाली आकस्मिकताओं के लिए निवारक उपायों की पूरी तरह तैयारी की होती तो ऐसी आपदाओं को रोका जा सकता था।

ये निहित स्वार्थ नगर योजनाकारों, नौकरशाहों और यहां तक कि राजनीतिज्ञों की भी मिलीभगत होते हैं। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि मकान की जरूरत या अन्य कारणों से आम नागरिक भी इसमें एक घटक बनते हैं।

तो ये ऊपर लिखे हुये जो भी वर्तमान बाढ़ आपदा प्रबंधन के उपाय किये जा रहे हैं वो अपर्याप्त हैं। सरकारें बाढ़ प्रबंधन को लेकर देर से जागती हैं और संबंधित जिलों को प्रशासनिक अधिकारियों के भरोसे छोड़ देती हैं। ज्यादा हालात खराब होने पर सरकारों के मुखियाओं द्वारा हैलीकॉप्टर से दौरा कर के कुछ बाढ़ सहायता राशि की घोषणा कर दी जाती हैं और उसके बाद धीरे धीरे सब भुला दिया जाता है और ये सिलसिला साल दर साल चलता रहता है।

जबकि होना तो ये चाहिये कि वर्तमान बाढ़ प्रबंधन जिस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है को केवल बाढ़ प्रबंधन के विशेषज्ञों के द्वारा ही किया जाना चाहिये।

बाढ़ आपदा प्रबंधन के लिये और क्या किया जा सकता है


बाढ़ नियंत्रण एक ऐसा विषय है, जिसके लिए कोई स्पष्ट विधायी दायरा तय नहीं किया जा सकता। एक विषय के रूप में यह देश की किसी भी विधायी सूची अर्थात् केंद्रीय, राज्य या समवर्ती सूची में शामिल नहीं है।

यह अलग विषय है कि जल निकासी और तटबंध संबंधी मुद्दों का उल्लेख राज्य सूची की द्वितीय सूची की प्रविष्टि संख्या 17 के रूप में किया गया है। इसका यह निहितार्थ है कि बाढ़ को रोकना और उसका मुकाबला करना मुख्य रूप से राज्य सरकारों का दायित्व है। कई राज्यों ने बाढ़ संबंधी मुद्दों से निपटने के प्रावधानों के साथ कानून बनाए हैं।

केंद्र सरकार मुख्य रूप से परामर्शी क्षमता में भूमिका अदा करती है अथवा राज्यों के राहत और पुनर्वास प्रयासों में पूरक मदद करती है।

एक विस्तृत टिप्पणी के अनुसार वर्तमान में बाढ़ प्रबंधन की देखरेख के लिए दो स्तरीय प्रणाली कायम है। राज्य के स्तर पर जल संसाधन विभाग, बाढ़ नियंत्रण बोर्ड और राज्य तकनीकी परामर्शी समितियां स्थापित की गई हैं।

केंद्रीय व्यवस्था के अंतर्गत संगठनों का एक नेटवर्क शामिल है और बाढ़ प्रबंधन के बारे में परामर्श देने के लिए समय समय पर विशेषज्ञ समितियों का गठन किया जाता है।

ये व्यवस्था कागजों मे तो अच्छे से काम कर रही है परंतु हमारे अनुसार बाढ़ आपदा प्रबंधन के लिये ये किया जाना चाहिये ---

  • अधिक समन्वय पर ध्यान देते हुए केंद्र, राज्य तंत्र को अधिक सुदृढ़ करने की आवश्यकता है। यह व्यवस्था एक सतत और निरंतर प्रणाली के रूप में होनी चाहिए, न कि केवल आपदा के समय काम करने वाली प्रणाली। 
  • आधुनिक प्रौद्योगिकी के सहारे संकट प्रबंधन नेटवर्क हेतु ढांचे का निर्माण करना चाहिये। अब तो भारत के पास खुद के मौसम सेटेलाइट भी हैं। इसरो (ISRO) की सहायता से अंतरिक्ष से अच्छी गुणवत्ता की फोटो लेकर उनका विश्लेषण विशेषज्ञों द्वारा किया जाना चाहिये।
  • पर्यावरण के मोर्चे पर नई चुनौतियों और कुप्रशासन के मुद्दों को देखते हुए राज्यों के लिए यह कठिन है कि वे स्वयं बाढ़ प्रबंधन की योजना बनाएं। केंद्र और राज्य सरकारों को एक संयुक्त योजना के जरिए विभिन्न बाढ़ नियंत्रण उपायों को अंजाम देना  चाहिए। 
  • तटबंधों, बाढ़ रोकने वाली दीवारों, रिंग बांधों, बाढ़ नियंत्रण जलाशयों के निर्माण से बाढ़ के लिये व्यवस्था की जानी चाहिये ताकि नीचे जाने वाले पानी के प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए सुरक्षित सीमाओं के भीतर बाढ़ के जल की कुछ मात्रा को अस्थाई तौर पर एकत्र किया जा सके।
  • एक अन्य महत्वपूर्ण उपाय में नदी चैनलों और सतही नालों में सुधार और नदी किनारों पर भूमि कटाव रोकना शामिल है। इससे भले ही पूरी तरह बाढ़ रोकना संभव न हो, लेकिन बाढ़ के पानी को फैलने से रोकने में अवश्य मदद की जा सकती है।
  • उदाहरण के तौर पर मैं ये बताना चाहुंगी कि दुनिया के सभी बड़े देशों और शहरो को देखना चाहिये कि उन्होंने अपने यहां आने वाली बाढ़ आपदा का प्रबंधन कैसे किया। 
  • अगर आप बैंकाक, लंदन, मास्को, न्यूयार्क, शंघाई इत्यादि शहरों को देखेंगे तो पायेंगे कि वहां पर नदियों को गहरा कर कर के दोनों ओर के किनारों पर पक्का कर दिया गया है और साथ ही जमीन को नदी से निकाल कर वहां निर्माण कार्य किया गया है जिससे नदी में पाना बना रहता है और वो कटाव भी नहीं कर पाती है।
  • ऐसी गहरी करी गई नदियों में जल यातायात भी यात्रियों और सामान को ढोने के लिये किया जाता है। 
  • यही करने से काफी हद तक हम बाढ़ की समस्या से बच सकते हैं यानी कि नदियों कि सफाई कर के उनको गहरा करते रहना चाहिये।
  • वर्तमान में प्रचलित परिस्थितियों और नई चुनौतियों को देखते हुए यह जरूरी है कि बाढ़ प्रबंधन को एक पृथक विषय के रूप में देखना उचित होगा। यह जरूरी है कि बाढ़ नियंत्रण और प्रबंधन प्रणाली को सुदृढ़ बनाया जाए लेकिन उतना ही महत्वपूर्ण यह भी है कि इसे पर्यावरणीय ह्रास, वैश्विक तापमान और विभिन्न स्तरों पर कुप्रशासन के संदर्भ में भी देखा जाए।
  • बाढ़ प्रबंधन के प्रति किसी भी दृष्टिकोण में इन सभी महत्वपूर्ण घटकों को शामिल किया जाना चाहिए। बाढ़ प्रबंधन केवल पुराने सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण विभागों के माध्यम से नहीं किया जा सकता। 
  • शहरी बाढ़ का मुख्य कारण निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा भूमि का अतिक्रमण करना और बरसात के मौसम से पहले अग्रिम आयोजना का अभाव है। शहरों के निकट नालों और नालियों की सफाई को उच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
  • ग्रामीण क्षेत्रों में भी नदियो को गहरा करके बाढ़ आपदा का प्रबंधन किया जा सकता है। 
  • जैसा कि वर्तमान में जो वृक्षारोपण वगैरह का सरकारी कार्यक्रम चलता रहता है, उसको ठीस से देखने की जरूरत है। केवल वृक्षारोपण उद्देश्य न होकर पेड़ को बड़ा करने का उद्देश्य होना चाहिये।


अधिक ध्यान बाढ़ से संबंधित दीर्घावधि योजना पर केंद्रित किया जाना चाहिए ताकि निवारक और राहत पहलुओं को भी शामिल किया जा सके।

लोग कह सकते हैं कि ये तो बहुत मंहगा समाधान है, लेकिन अगर हम भारतीय अपने आप को दुनिया के विकसित देशों में देखते हैं तो हमें पक्के समाधान निकलने ही होंगे भले ही वो मंहगे हों।

मुझे यहां पर आपके विचारों और टिप्पणियों का स्वागत रहेगा ताकि हम लोग परंपरागत बाढ़ प्रबंधन की बजाए कुछ अलग उपाय करके बाढ़ आपद प्रबंधन की दिशा में विचार विमर्श कर सकें।

Manisha सोमवार, 27 जुलाई 2020

समाचार माध्यमों को लगता है कि दिल्ली ही भारत है


कल दिल्ली और उसके आस-पास के इलाकों में पहली बार मुसलाधार बारिश हुई जिसकी वजह से दिल्ली में अधिकांश जगह पानी भर गया और इसके कारण लोग बाग सड़कों पर जाम में फंस गये और घंटो बाद अपने घरों और गंतव्यों की ओर पहुंच पाये। 

News Media Delhi is India

हिंदी के अधिकांश टीवी समाचार चैनलों ने इसके ऊपर कार्यक्रम दिखाने शुरू करके सरकार को जमकर लताड़ लगाई। 

ये सब तो ठीक है और जिम्मेदार मीडिया को ऐसा ही करना चाहिये लेकिन क्या सिर्फ दिल्ली तक ही इस तरह की जागरुकता को सीमित रहना चाहिये? 

दरअसल, भारत के अधिकांश हिस्सों का हाल बारिश के दिनों में ऐसा ही हो जाता है बल्कि इस से भी बुरा हो जाता है, पर वहां के बारे में शायद ही कभी दिखाया या बताया जाता है। 

क्या भारत के अधिकांश शहरों में बारिश में पानी नहीं भरता है? क्या भारत के अधिकांश शहर बारिश में नारकीय दृश्य नहीं दिखाते हैं? तो फिर उनकी खोज खबर कौन लेगा? 

क्या माडिया के लिये शेष भारत कहीं है ही नही या फिर दिल्ली ही इन के लिये भारत है?

दिलचस्प बात ये है कि अधिकांश पत्रकार बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड या अन्य राज्यों के हैं जहां पर बिजली, सड़क, पानी की हालत खराब ही है। बारिश में वहां की हालत बहुत ही खराब जैसी स्थिति रहती है लेकिन ये लोग कभी इन राज्यों की चर्चा भी नहीं करते हैं। 

पर दिल्ली में अगर आधे घंटे बिजली जाने पर विशेष कार्यक्रम दिखाते हैं, लेख लिखते हैं, बारिश के दिनों में जाम लगने पर संपादकीय लिखते हैं, 26 जनवरी की परेड़ के कारण लगने वाले जाम की चर्चा करते हैं लेकिन शेष भारत की किसी समस्या के बारें बहुत ही कम बात करते हैं। 

क्या आपने अपने शहर की समस्या के बारे में मीडियी में कोई प्रोग्राम देखा?

Manisha रविवार, 7 फ़रवरी 2016

बरसात के बारे में मौसम वैज्ञानिक क्यों फेल हैं?


पूरे उत्तर भारत में अभी तक ढंग से मानसुन की बारिश नहीं हुई है। कहीं पर कुछ कुछ बारिश हुई है, कहीं पर एक बार जोर से बरसात हो गई और उसके बाद फिर से साफ आसमान है, कुल मिला कर मानसून अभी तक नहीं आया है। 

मौसम वैज्ञानिकों ने पहले कहा कि मानसून अपने निर्धारित समय पर आ जायेगा। वो नहीं आया।  फिर कही कि एक हफ्ते के बाद आयेगा। फिर कहा कि देर से भले ही आये लेकिन बादल खूब बरसेंगे। 

फिर एक दिन जब दिल्ली में पानी बरसा तो अपने को बचाने के लिये बोल दिया कि दिल्ली में मानसून आ गया जो कि इस घोषणा के बाद फिर गायब हो गया। इसके बाद देश के उत्तर भाग में कहीं कहीं बारिश हो जाती है पर लगातार कहीं भी बारिश नहीं रही है।

Monsoon मानसून


या तो मौसम पूर्वानुमान की वैज्ञानिक विधि चूकती है या हमारे विज्ञानियों की गणना में कोई गलती रह जाती है या बरसात के बादल ही बार-बार खुद को आवारा साबित करते हैं, कुछ तो होता है, जिसके कारण खेती और जीवन से जुड़े मानसून की शुरूआत का निश्चित समय बताना अब भी कठिन बना हुआ है। पहले जिस बारिश को मानसून से पहले की बारिश कहा जाता था उसे ही अब मानसून कहा जाने लगा है।

पिछले कई बर्षों से ऐसा हो रहा है। 

हर साल अप्रैल के महीने में भारत सरकार का मौसम विभाग विज्ञान अपने तकनीकी मंत्री जी को कुछ आंकड़े देकर एक प्रेस कोंफ्रेंस करवाता है,जिसमें मंत्री जी गर्व से घोषणा करते हैं कि देश में इस बार 93-98 प्रतिशत बारिश होगी (जानबूझ कर 100 प्रतिशत नहीं बोला जाता है) और मानसून देश में समय से आयेगा इत्यादि। 

समाचार पत्रों में चित्र के साथ समाचार छप जाता है। फिर जून का महीना आता है और सब मानसून का इंतजार करते है। लेकिन मानसून देर से आता है, उसमें भी बहुत कम बारिश होती है। 

फिर संसद के मानसून सत्र में कम बारिश को लेकर सवाल किये जाते हैं। मंत्री जी जबाव में कुछ आंकड़े पेश करते हैं और साथ ही ये भी बताते हैं कि मौसम विभाग से मानसून के अनुमान लगाने के लिये नया मॉडल बनाने को कहा गया जिसके लिये विभाग को XXXX  करोड़ रुपयों की आवश्यकता पड़ेगी जिसके लिये मंत्रीजी संसद में अनुदान मांगो के एक प्रस्ताव लेकर आ जाते हैं।

फिर अगला साल आता है और फिर नये मॉडल से साथ मंत्रीजी प्रेस कांफ्रेंस करते हैं और फिर वही होता है।

आखिर ये सब कितने सालों तक चलता रहेगा? बरसात के बारे में मौसम वैज्ञानिक क्यों फेल हैं?

Manisha बुधवार, 14 जुलाई 2010

मानसून कहां गया?


भीषण गर्मी में हम लोग बारिश का इंतजार कर रहे हैं और बारिश है कि देश में कहीं पता ही नहीं है। 

पिछले कई दिनों से तापमान 40 डिग्री के उपर चल रहा है और जीवन में कष्ट बढ़ा रहा है। भारत सरकार कह रही है कि मानसून के आने में कुछ देर हो सकती है और इस बार बारिश भी सामान्य से कम होगी। 

मानसून कहां गया?


सरकार के अनुसार मानसून के इस बार सामान्य से कम रहने से देश की कृषि व अर्थव्यवस्था प्रभावित हो सकती है। 

ये तो सरकार की बातें हैं लेकिन समान्य जन तो गर्मी से राहत के लिये मानसून की बारिश का ही इंतजार कर सकते है। 

एक बात जो मुझे समझ नहीं आई कि हर बार अप्रैल के महीने में सरकार के मंत्रीजी और मौसम विभाग के अधिकारी मानसून की सामान्य होने की घोषणा करने क्यों चले आते हैं? अब कह रहे हैं कि कम बारिश होगी। 

अब अगर मानसून नहीं आया है तो कोई भी बता देगा कि बारिश औसत से  कम ही होगी, मौसम विभाग वाले क्या खास बता रहे हैं। 

कई वर्षों से अप्रैल के महीने में भविष्यवाणी करते हैं और फिर गलत निकलने पर आंकड़े पेश करके अपने आपको साबित करने की कोशिश करते हैं। 



दो साल पहले इनकी भविष्यवाणी को लेकर जब संसद में हंगामा हुआ तो अपना मॉडल बदलने के लिये 500 करोड़ रुपये की मांग की गई ताकि नये उपकरण खरीदे जायें और सही जानकारी दी जा सके।

ये मांगे मान भी ली गई पर फिर भी इस बार इनकी अप्रैल की भविष्यवाणी गलत हो गई। 

आम जनता तो पहले से ही मौसम विभाग पर भरोसा नहीं करती है और कई प्रकार के चुटकुले मौसम विभाग को लेकर प्रचलित है। 

बहरहाल उम्मीद है कि इंद्र देव भारत से नाराज नहीं होंगे और जल्दी ही बादलों को भारत में जोरदार बारिश करने का आदेश देगें। आप सब भी उपर वाले से दुआ कीजिये।

Manisha गुरुवार, 25 जून 2009