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घिसी पिटी भारतीय नीतियां जिनसे भारत को घाटा हो रहा है


जब से भारत ने अंग्रेजों से स्वाधीनता प्राप्त करी है तब से ही हम भारत के लोग एक ऐसी काल्पनिक दुनिया की सोच में रहते हैं जहं पर सब कुछ अच्छा होता है और सारे देश और वहां के लोग सीधे और सच्चे होते हैं। इन्हीं ख्यालों में हमने कुछ नीतियां और जुमले बनाये हुये हैं और समय समय पर उनकी बात करते रहते हैं।


आजादी के बाद से दुनिया कहां से कहां पहुंच गई पर हम अभी भी इन्हीं नीतियों और जुमलों के जाल में फंसे हुये हैं। एक-आधा नीति को शायद हमने छोड़ा होगा या नई कोई नीति बनाई होगी वर्ना तो बस पुराने रिकार्ड की तरह हम हमेशा वही बातें दोहराते रहते हैं।


Outdated Indian Policies घिसी पिटी भारतीय नीतियां


घिसी पिटी नीतियां और जुमले


आइये आपको बताते हैं ऐसी ही कुछ घिसी पिटी नीतियां और जुमले जो भारत में चलती हैं -

  1. हम दुनिया के जिम्मेदार लोकतांत्रिक देश हैं - जब आप पिट गये और कोई कार्रवाई न करने का बहाना है
  2. वसुधैव कुटुंबकम - इस का फायदा उठा कर सब देशों के लोग अवैध तरीके से भारत में रह रहे हैं
  3. पंचशील और हिंदी-चीनी भाई भाई - ये बात तो 1962 में ही पिट गई
  4. गुट निरपेक्षता नीति - अब  ये तो बिलकुल ही समाप्त होने को आई लेकिन हम अभी भी इसका जिक्र करते रहते हैं
  5. गुजराल डॉक्टरिन - पाकिस्तान हमेशा फायदा उठाता है
  6. पहले परमाणु हथियारों का प्रयोग न करने की नीति - तो क्या जब हमारे ऊपर कोई परमाणु बम गिर जायेगा तब हम प्रयोग करेंगे तो हमें उससे पहले भयानक नुकसान तो हो चुका होगा
  7. भारत ने आज तक किसी देश पर हमला नहीं किया - ये बात हम बार बार बताते हैं पर इसको भारत के दुश्मन भारत की कमजोरी समझते हैं
  8. भारत सब को साथ लेकर चलना चाहता है - अरे भाई सबको कभी साथ नहीं लिया जा सकता, पहले अपना फायदा देखो
  9. भारत समस्या का समाधान बातचीत और शांति से चाहता है - बातचीत और शांति से तो आजतक अपनी बढ़त को गंवाया ही है, बेहतर है एक-दो बार अशांति से भी समस्या समाधान निकालें
  10. पाकिस्तान की जनता तो शाति चाहती है पर वहां के शासक नहीं - अरे भाई जनता तो यहां से ही गई है न, जो कि साथ नहीं रहना चाहती थी, शासक तो राजनीतिक लोग होते हैं वो लोगों की नब्ज पहचानते हैं, अगर जनता भारत के साथ शांति से रहना चाहेगी तो कोई भी शासन में हो वो वाेट लेने के लिये जनता की बात को ही मानेगा। असल ये है कि पाकिस्तानी जनता ही भारत विरोधी है
  11. दुनिया के लोकतांत्रिक देशों को एक साथ आना चाहिये - अगल अलग परिस्थितियों और भौगोलिक स्थिति के अनुसार सब देश निर्णय लेते हैं
  12. हम अहिंसा को मानने वाले देश हैं - यही तो सारी कमजोरी का कारण है
  13. आतमकवाद को कई धर्म नहीं है - बताइये? क्या सचमुच?
  14. हम विश्व आध्यात्मिक गुरू हैं - हो सकता है कभी रहे हों या वास्तव में हों पर दुनिया तभी मानेगी जब हम आर्थिक और सामरिक तौर पर भी सशक्त हों


और भी कई ऐसी नीतियां और जुमले जिन्हें हम ढो रहे हैं।

अच्छा हो यदि हम इन रुमानी बातों से निकल कर ठोस धरातल पर होने वाले घटनाकृम को देख कर नीतियां बनायें और भारत देश को सशक्त बनायें।

Manisha शुक्रवार, 19 जून 2020

महिला दिवस भी हिन्दी दिवस की तरह है


भारत में अच्छे भले उद्देश्य भरे किसी  भी काम को कैसे निरूद्देशीय खाली-पीली बाते बनाने में बदला जाता है,
अंतर्राष्ट्ररीय महिला और हिन्दी दिवस इसका प्रमाण 8 मार्च को होने वाला अंतर्राष्ट्ररीय महिला दिवस है। 

इस महिला दिवस पर तमाम तरह की संगोष्ठियां आयोजित की जाती है, महिला सशक्तिकरण का ढोल पीटा जाता है, तरह तरह के वादे किये जाते हैं। इन सब कामों में पूरुष ज्यादा बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। 

ऐसा दिखाया जाता है मानों समाज महिलाओं के लिये कितना चिन्तित है और कितना कुछ करना चाहता है। देखिये आज महिला दिवस पर सबसे ज्यादा पुरुष चिठ्ठाकारों  ने ही महिला दिवस पर लिखा है। 

राजनैतिक पार्टियां बतायेंगी कि कैसे वो महिलाओं के उत्थान के लिये वचनबध्द हैं, लेकिन चुनावों में महिलाओं के टिकट देने की बारी आयेगी तो बताया जायेगा कि जीतने वाले उम्मीदवारों को ही टिकट दिया जायेगा। 

कहने का मतलब ये है कि किसी की दिलचस्पी इस में नहीं है कि कैसे इस देश में महिलाओं को उनका उचित स्थान मिले, उचित अवसर मिलें, बल्कि इस बात में है कि वो कैसे ज्यादा महिला हितैषी दिखें। 


इसी वजह से  महिला दिवस भी हिंदी दिवस की ही तरह से हो गया है जिसको मनाने के अगले ही दिन से लोग भुल जाते हैं और अपने पुराने ढर्रे पर आ जाते हैं। बिना महिलाओं की तरक्की क्या देश आगे बढ़ सकता है? 

महिलाओं के उत्थान की बात करने वालों के पास पच्चीस प्रतिशत वाले समुदाय की महिलाओं की तरक्की के बारे में कोई योजना नहीं होती है मानो उनका विकास जरुरी नहीं है। 

पूरे साल महिलाओं को अपने अधिकारों के लिये संघर्ष करना पड़ता है। अगर समाज के लोग केवल एक दिन याद न रखकर पूरे साल ईमानदारी से अपनी बातों पर अमल करें तो वाकई कुछ ही सालों में बहुत परिवर्तन आ सकता है।

Manisha रविवार, 8 मार्च 2009