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अब तो कुछ करो पत्रकारों


आज छत्तीसगढ़ के जिला राजनांदगांव के मदनवाड़ा इलाके मे नक्सलियों ने पुलिस पार्टी पर हमला करके  30 पुलिस वालों को मार डाला है और अभी प्राप्त समाचार के अनुसार एक और हमला करके 8 और पुलिस वालों को मार डाला है। इसमें एक एसपी भी हैं। 

पत्रकारिता


हर 15-20 दिन में इस प्रकार का समाचार मिलता है जिमसें हमें देश के पुलिस वालों की जान बड़ी संख्या में नक्सलियों द्वारा लिये जाने के समाचार प्राप्त होते रहते है।  

नक्सली पुलिस वालों को शहीद किये जा रहे हैं और हमारा दिल्ली का राष्ट्रीय माडिया नक्सलियों  तालीबान और गे – समलैंगिकों के समाचारो को अहमियत दे रहा है। 

अरे पत्रकारों, तालीबान ने भी इतने पुलिस वालो की हत्या नहीं की होगी जितनी नक्सलियों ने की है। आखिर कब इन पुलिस वालों के उपर कार्यक्रम बनाओगे और अपनी जिम्मेदारी निभाओगे? छोड़ों तालीबान और समलैगिकों को। 

लगातार खबरें दिखा कर सरकार पर दबाव डालो कि वो कुछ करे। क्या नक्सलवाद की समस्या समलैगिको की समस्या से ज्यादा बड़ी है? अब तो कुछ करो पत्रकारों!!!!

बहरहाल शहीद पुलिस वालों को मेरा सलाम और उनसे निवेदन की वो खुद ही कुछ करें यहां की सरकार और मीडिया आपकी चिन्ता करने वाले नहीं है।

Manisha सोमवार, 13 जुलाई 2009

शराब रुपी अमृत पीकर मरते लोग


आज गुजरात के अहमदाबाद में जहरीली शराब पीकर जान गंवाने वालों का आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है। प्रशासन ने  अब तक 86 लोगों की मौत की पुष्टि कर दी है। लेकिन, यह आंकड़ा 100 के पार पहुंचने की आशंका जताई जा रही है। इससे पहले कुछ दिन पूर्व में ये किस्सा दिल्ली में हुआ था। 

Manisha गुरुवार, 9 जुलाई 2009

बात यहीं तक रहेगी या आगे भी जायेगी


दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले के बाद गे और उनके जैसे तमाम लोगों ने राहत की सांस ली होगी। अब उन्हें अपने हिसाब जिन्दगी जीने की कानूनी छूट रहेगी। 

हमें भी अब रोज - रोज की बिना मतलब की बहस और रोज-रोज समलैंगिकों के समर्थन में छपने वाले लेखों से छूट मिल जायेगी। बस अब देखना यही रहेगा कि ये बात यहीं तक रहेगी या फिर समलैंगिकों की शादी की आजादी, वेश्यावृति को भी व्यक्तिगत आजादी की मांग पर कानूनी मान्यता देने व अन्य बातों की ओर भी जायेगी। 

दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले से मेरी असहमति है लेकिन देश को और हमें इस आदेश को मानना चाहिये। उम्मीद है बात यहीं खत्म हो जायेगी।


Manisha शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

शुक्र है देश में मुस्लिम और इसाई संगठन हैं


चाहे आप मुझे पुरातनपंथी कहें, पिछड़ा कहें, दकियानूसी कहें या कुछ और लेकिन मैं सरकार द्वारा समलैंगिकों और कानून की धारा 377 हटाने के सख्त खिलाफ हूं। मुझे मालूम है कि इस समय देश में अपने आप को समलैंगिक समर्थक दिखाकर पर प्रगतिशील होने का फैशन है पर मैं क्या करूं मेरी जानकारी और विचारों के अनुसार मैं इसकी विरोधी हूं। मेरे इस बारे में विचार इस प्रकार हैं

  1. समलैंगिकता के समर्थक कहते हैं कि ये उनको कुदरत की देन है, भगवान ने उन्हे ऐसा बनाया है। हो सकता है ऐसा ही हो लेकिन फिर भी ये लोग अचानक से कुछ ज्यादा कैसे हो गये हैं? खैर, कुछ समय पहले एक शोध के अनुसार बताया गया था कुछ अपराधी जन्मजात अपराधी मानसिकता के होते हैं अर्थात कुदरत ने  बर्बर अपराधियों और बुरे लोगों को भी बनाया है तो क्या जिन पर ये साबित हो जाये वो जन्मजात ऐसे है तो क्या उनको अपराध करने की छूट सरकार द्वारा दी जानी चाहिये? इसके अलावा सामाचार पत्रों में भी कुछ खबरें इस प्रकार की आई थी कुछ लोग जबरन हिजड़े बनाये जा रहे है। क्या इसको बढ़ावा नहीं मिलेगा?
  2. समलैंगिकता के समर्थक कहते हैं कि धारा 377 उनको परेशान करने के काम आती है। वैसे आज तक कितने केस धारा 377 के सामने आये है? समलैंगिक तो धारा 377 के लगे होने के बावजूद इस काम में लगे हुये हैं। जिसको बुराई की ओर जाना है  उसको कोई रोक नहीं सकता है।
  3. कुछ समलैंगिकता के समर्थक कहते हैं कि ये सब तो भारतीय समाज में हजारों सालों से चला आ रहा है। बेशक चला आ रहा है। बुराई तो हमेशा से साथ रही है लेकिन उसको दबाने की भी कोशिश होती रही है। मानव सभ्यता के इतिहास में हत्या, चोरी, लूटमार वगैरह सब रही हैं, तो क्या इन सब पर से सिर्फ इसीलिये कानून की रोक हटा ली जानी चाहिये क्योंकि ये हजारों सालों से हो रही हैं और इनको कोई कानून नहीं रोक पाया है?
  4. समलैंगिकता के समर्थन में जब से पत्रकार खासकर अंग्रेजी के, और फैशन डिजायनर आये हैं तब से इसके लिये सरकार पर दबाव बनाया जा रहा है। इसके पक्ष में समाचार छापे जा रहे हैं।
  5. समलैंगिकता के समर्थक कहते हैं कि किसी बुराई को दबाने से वह और बढ़ती है पर मेरे विचार से इसका उल्टा है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण शराब का है। शराबबंदी  के विरोधी भी ऐसी ही दलीलें देते हैं लेकिन जब से गली-गली शराब बिकनी शुरू हुई है शराबियों की संख्या बढ़ ही रही है।
  6. समलैंगिक यूरोप और अन्य देशों का उदाहरण देने लगते हैं कि वहां पर इसकी आजादी है इत्यादि। लेकिन जिन देशों में रोक है उनके नाम नहीं बताते। अमेरिका के भी 51 राज्यों में से आधे से भी ज्यादा राज्यों में इस पर रोक है। उनका नाम कोई नहीं बताता। दूसरी बात क्या भारत और यूरोप, अमेरिका के सामाजिक परिवेश समान हैं? यहां कौन सा समलैंगिक 18 वर्ष का रोते ही मां-बाप से अलग रहने लगता है?  अगर यूरोप, अमेरिका  का ही अनुसरण करना है तो हर बात में करो। सलेक्टिव बातों में नहीं।
  7. अगर सरकार गे-परेड की बात को ध्यान में रखकर धारा 377 हटाना चाहती है तो लाखों लोगो की इससे भी बड़ी रैली की जा सकती है समलैंगिकता के विरोध में।
  8. सारे ही धर्म समलैंगिकता को गलत बताते है और इसके लिये मना करते हैं। अगर लगता है कि धर्म गलत कह रहा है तो फिर उस धर्म को पूरा छोड़ो। कुछ बातों को मानना और कुछ को नहीं मानना गलत है। अखिर सारे धर्म गलत हैं और सिर्फ समलैंगिकता के समर्थक सही हैं ऐसा तो नहीं हो सकता। क्या समलैंगिकता कोई नया धर्म बनने जा रहा है?
LGBT


मैंने अपने दिल की बात कह दी है। शुक्र है देश में मुस्लिम और इसाई संगठन हैं जो इस समलैंगिकता की बुराई का विरोध कर रहे हैं वर्ना सरकार ने तो माहौल बना ही दिया था। 

हिंदु संगठन तो इस मामने कहीं दिख ही नहीं रहे हैं। ये भी अब प्रगतिशील होना चाहते हैं। अल्पसंख्य्कों की वजह से ही सही सरकार  पीछे तो हटी।

Manisha मंगलवार, 30 जून 2009

अज्ञात टिप्पणीकार पर रोक सही नहीं है


हिंदी चिठ्ठा जगत में इस समय अज्ञात टिप्पणाकारों द्वारा छद्म नामों से टिप्पणी करके लड़ाई-झगड़े कराने की कोशिश को लेकर हंगामा मचा हुआ। 

इस को लेकर आशीष खंडेलवालजी ने हिंदी ब्लॉग टिप्स के अपने चिठ्ठे पर कल काफी अच्छा व्यंग भी लिखा था। 

शास्त्रीजी और सुरेश चिपलूकरजी भी अपनी नाराजगी व्यक्त कर चुके हैं। 

मेरे विचार में परेशानी अज्ञात टिप्पणीकारों से न होकर उनके द्वारा की गई अनाप-शनाप टिप्पणियों को लेकर होनी चाहिये। 

अज्ञात या Anonymous पर रोक होना इंटरनेट की मुल अवधारणा के खिलाफ है। इंटरनेट के संस्थापकों ने इंटरनेट पर स्वतंत्र चिंतन और अभिव्यक्ति की अवधारणा को मजबूत करने के लिये ही इंटरनेट पर गुमनाम रहकर अपनी बात कहने की आजादी दी थी। इसका दुरुपयोग भी हुआ है लेकिन इसका फायद भी बहुत है। 

गुमनाम रहकर ही कई ब्लॉगर दुनिया में अपनी बात कह पाये हैं। क्या ईराक, ईरान, अफगानिस्तान, चीन या ऐसे कई देश जहां बोलने की आजादी नहीं है वहां पर लोग अपनी बात दुनिया के दूसरे हिस्सों में पहुंचा पाते? नहीं। 

कई बार अपनी बात आप अज्ञात रह कर ही कर सकते हैं। टिप्पणियों की भी ऐसी ही बात है। हम लोगों को अज्ञात टिप्पणी पर रोक के बजाय उस पर मोडरेशन लगा कर पहले उसे पढ़ कर आगे बढा़ना चाहिये।

 टिप्पणी अवांछित है, अश्लील है या किसी और को बदनाम करने के लिये की गई है, ऐसी टिप्पणी को हर हाल में रोका जाना चाहिये और इसके लिये कमेंट मोडरेशन काफी है। 

अज्ञात टिप्पणी पर रोक न लगाकर इसे सेंसर करना ज्यादा ठीक है।  अत: अज्ञात टिप्पणीकार पर रोक सही नहीं है।

Manisha शनिवार, 27 जून 2009

इतने शातिर विचार कैसे दिमाग में आते हैं?


आज के दिल्ली के अखबारों में एक ऐसी आपराधिक मामने की खबर छपी है जिससे ये पता चलता है कि अपराध करने में भारतीय लोगों का दिमाग कुछ ज्यादा ही तेज चलता है।  अगर यही दिमाग किसी खुराफात के बजाय ढंग के काम में लगाया जाता तो अपने साथ- साथ दूसरों का भी भला कर पाते। कुछ घटनायें जो मुझे याद हैं या हाल ही में हुई है शातिर विचार
  • एक तो आज ही की खबर है कि वह शातिर दिमाग के लोग अखबारों, टीवी चैनलों, बस स्टैंडों, रेलवे स्टेशनों व रेलगाड़ियों के टायलेट में गुमशुदा लोगों के लगे विज्ञापनों में छपे फोन नंबरों पर कॉल करके गुमशुदा लोगों के परिजनों से फिरौती की रकम ऐंठते थे। उनसे ये लोग कहते थे  कि तुम्हारे गायब लोग हमारे कब्जे में हैं और फिर उनसे फिरौती की रकम लेकर फरार हो जाते थे। कल इनको पुलिस ने पकड़ा है।

  • एक हमारे मिलने वाले उत्तर प्रदेश के एक विश्वविद्यालय में काम करते हैं, उन्होंने बताया कि वहां पर कुछ कर्मचारी बिना कुछ करे ही पैसा कमा लेते हैं। वो विभिन्न प्रवेश परीक्षाओं जैसे कि बी.एड., कानून आदि के परीक्षार्थियों से पास कराने के नाम पर पैसा ले लेते हैं और फिर कुछ न करके चुपचाप बैठ जाते हैं। परीक्षा का परिणाम आने पर जिनका चयन हो जाता है उनसे कहते हैं कि उन्होंने करवाया है और जिनका चयन नहीं होता है उनके पैसे वापस कर देते है।  पैसे वापस देने से साख भी बनी रहती है और बिना कुछ करे कमाई भी हो जाती है।

  • हमारे साथ पढ़ा एक लड़का रेलवे में काम करता है, उसने बताया कि बड़े रेलवे स्टेशनों पर गाड़ी का प्लेट फार्म बदल कर भी कमाई की जाती है। मान लीजिये कि एक प्रमुख गाड़ी रोज प्लेट फार्म नम्बर एक पर आती है तो उसी प्लेट फार्म पर यात्री सामान या पानी इत्यादि  खरीदने के लिये उतरते हैं, ऐसे में अन्य प्लेट फार्म को वेंडर भी कमाई करने के लिये स्टेशन व्यवस्थापकों को पैसे देकर किसी दिन गाड़ी को अपने दूसरे प्लेट फार्म पर भी रुकवा लेते हैं। स्टेशन व्यवस्थापक तकनीकी गड़बड़ी की बहाना लेकर प्लेट फार्म बदल देते हैं।

  • सोना और रुपया दुगना करके ठगी करने की कई घटनायें रोजाना समाचार पत्रों में छपती रहती हैं।

  • हाल ही में अशोक जडेजा और दिल्ली में कई ठगों के पकड़े जाने कि घटनायें सामने आई हैं।

  • छोटे से इलाज के बहाने किडनी निकालने की भी कई घटनायें सामने आती रहती है।

  • सत्यम कंप्यूटर्स के घोटाले कि जानकारी तो आप सब को पता है कि कैसे बैलेंस शीट में हेरा-फेरी करके अरबों रुपये इधर उधर किये गये।
यहां मेरे कहने का मतलब ये है कि इतने शातिराना विचार कैसे लोगों के दिमाग में आते हैं। क्या हम अपराधों के बजाय इनको समाज के हित में काम करने के लिये इनका दिमाग नहीं मोड़ सकते। इसी प्रकार के कई शातिराना विचारो के बारे में अगर आप जानते हैं तो यहां बताये ताकि लोग सतर्क रह सकें।

Manisha शुक्रवार, 26 जून 2009

मानसून कहां गया?


भीषण गर्मी में हम लोग बारिश का इंतजार कर रहे हैं और बारिश है कि देश में कहीं पता ही नहीं है। 

पिछले कई दिनों से तापमान 40 डिग्री के उपर चल रहा है और जीवन में कष्ट बढ़ा रहा है। भारत सरकार कह रही है कि मानसून के आने में कुछ देर हो सकती है और इस बार बारिश भी सामान्य से कम होगी। 

मानसून कहां गया?


सरकार के अनुसार मानसून के इस बार सामान्य से कम रहने से देश की कृषि व अर्थव्यवस्था प्रभावित हो सकती है। 

ये तो सरकार की बातें हैं लेकिन समान्य जन तो गर्मी से राहत के लिये मानसून की बारिश का ही इंतजार कर सकते है। 

एक बात जो मुझे समझ नहीं आई कि हर बार अप्रैल के महीने में सरकार के मंत्रीजी और मौसम विभाग के अधिकारी मानसून की सामान्य होने की घोषणा करने क्यों चले आते हैं? अब कह रहे हैं कि कम बारिश होगी। 

अब अगर मानसून नहीं आया है तो कोई भी बता देगा कि बारिश औसत से  कम ही होगी, मौसम विभाग वाले क्या खास बता रहे हैं। 

कई वर्षों से अप्रैल के महीने में भविष्यवाणी करते हैं और फिर गलत निकलने पर आंकड़े पेश करके अपने आपको साबित करने की कोशिश करते हैं। 



दो साल पहले इनकी भविष्यवाणी को लेकर जब संसद में हंगामा हुआ तो अपना मॉडल बदलने के लिये 500 करोड़ रुपये की मांग की गई ताकि नये उपकरण खरीदे जायें और सही जानकारी दी जा सके।

ये मांगे मान भी ली गई पर फिर भी इस बार इनकी अप्रैल की भविष्यवाणी गलत हो गई। 

आम जनता तो पहले से ही मौसम विभाग पर भरोसा नहीं करती है और कई प्रकार के चुटकुले मौसम विभाग को लेकर प्रचलित है। 

बहरहाल उम्मीद है कि इंद्र देव भारत से नाराज नहीं होंगे और जल्दी ही बादलों को भारत में जोरदार बारिश करने का आदेश देगें। आप सब भी उपर वाले से दुआ कीजिये।

Manisha गुरुवार, 25 जून 2009

कार कंपनियां ब्रांड ऐम्बेसडर क्यों बनाती हैं?


कल कार कंपनी फियेट (FIAT) ने अपनी नयी छोटी हैचबैक कार ग्रांडे पुंटो (Grande Punto) को बाजार में उतारा था और आज के समाचार पत्रों में उसने अपने विज्ञापन भी जारी किये हैं। 

Grande Punto


इस विज्ञापन को देखने से पता चल रहा है कि फियेट ने प्रचार के लिये क्रिकेटर युवराज सिंह को अपना ब्रांड ऐम्बेसडर नियुक्त किया है। 

युवराज सिंह में और ग्रांडे पुंटो में समानता तो फियेट ही जाने पर मेरा मानना है कि कारों के विज्ञापनों में किसी क्रिकेटर या फिल्मी कलाकार की कोई आवश्यकता नहीं है, कार कंपनियां खांम खां ही अपना पैसा इन पर बर्बाद करती हैं। 

 कार भारत में ऐसी चीज है जो कि जिन्दगी में एक या दो बार ही खरीदी जाती है और कार को खरीदने की प्रक्रिया में पूरा परिवार शामिल होता है। 


कार खरीदने में कई पहलुओं का ध्यान रखा जाता है मसलन कार की कीमत, एवरेज, कार की सामाजिक स्थिति वगैरह, ऐसे में लोग किसी फिल्मी कलाकार या किसी बड़े खिलाड़ी की बातों पर यकीन नहीं कर पाते हैं। 

और दूसरी बात ये है कि ये बड़े कलाकार या खिलाड़ी खुद तो करोड़ों रूपये वाली कारों मे चलते हैं और विज्ञापन आम आदमी की कार का करते हैं जो कि यकीन लायक नहीं होता हैं। 

फियेट की ही बात लीजिये तो उसकी पिछली कार पालियो (Palio) के विज्ञापन के लिये सचिन तेन्दुलकर को लिया गया था फिर भी वो कार नहीं चली। 

मारुती ने वरसा (Versa) के विज्ञापन के लिये अमिताभ बच्चन और अभिषेक बच्चन को लिया था फिर भी वो कार नहीं चली। 

टोयोटा की इन्नोवा (Innova) कार के लिये आमिर खान को लिया गया था जिसको ठीक-ठाक सफलता मिली। 

सबसे ज्यादा सफल शाहरुख खान द्वारा प्रचारित सैंट्रो (Santro) कार रही है। 

कार कंपनियां को अपने विज्ञपनों में अपनी कार की खूबियों को प्रचारित करना चाहिये और फिल्मी कलाकारों या खिलाडियों को ब्रांड ऐम्बेसडर बना कर उनको करोड़ों रुपये देने के बजाय अपने ग्राहकों को उन रुपयों के बदले कार की कीमत कम करके ग्राहकों को फायदा देना चाहिये।

Manisha गुरुवार, 18 जून 2009

क्या इंटरनेट एक्सप्लोरर में आपके साथ भी ऐसा हो रहा है

मेरे कंम्प्यूटर पर इंटरनेट एक्सप्लोरर का 7वां संस्करण स्थापित है। मैं पिछले करीब महीने भर से देख रही हूं कि हिंदी के कुछ चिठ्ठे जब एक्सप्लोरर में खोले जाते है तो खुलने के तुरंत बाद एक संदेश  जाते है कि इंटरनेट एक्सप्लोरर  इस चिठ्ठे को ठीक से नहीं खोल पायेगा और फिर ओके (OK) बटन दबाने पर वह चिठ्ठा बंद हो जाता है। 

इसके बाद भी वहां पर कोई गतिविधि चलती रहती है क्यों कि चिठ्ठे के बंद होने के बाद भी वहां कुछ भी टाइप करके चलाने की कोशिश करें वह चलता नहीं है। 

ProbleminHindiblogs 
 
ये समस्या सिर्फ हिंदी चिठ्ठों में ही आ रही है और वो भी सिर्फ इंटरनेट एक्सप्लोरर में ही। 

मोजीला फायरफॉक्स और गूगल क्रोंम में ऐसा नहीं होता है। मेरे विचार में इंटरनेट एक्सप्लोरर  जावास्क्रिप्ट को ठीक से नहीं चला पा रहा है। 

ये समस्या सिर्फ मेरे ही कंप्यूटर पर ही नहीं है बल्कि कई और जगह भी देखी है। अगर आप मेंसे किसी को ऐसी कोई समस्या आई है और आप पर कोई समाधान हो तो बतायें।

Manisha बुधवार, 17 जून 2009
पिछले कुछ दिनों की यात्रा के बाद हम लोग वापस अपने घर  आ गये हैं। हरिद्वार, ऋषिकेश, बद्रीनाथ आदि की यात्रा हम लोगों ने की। काफी थकाने वाली और कई प्रकार के नये अनुभवों वाली रही ये यात्रा। समय मिलने पर इनके बारे में लिखना होगा।

Manisha

परीक्षाओं के परिणामों में कई अच्छाईयां


आजकल विभिन्न परीक्षाओं के परिणामों के जारी होने के दिन हैं। 

विभिन्न राज्य बोर्डों और इंजीनियरिंग, मेडिकल तथा कुछ प्रसिद्ध प्रतियोगी परीक्षाओं के परिणामों के बारे में कई दिनों से समाचार पत्रों में कुछ न कुछ छप रहा है। 

इसमें दो तरह की खबरें खास तौर पर छप रही हैं, एक तो इस तरह की कि कौन से कौन से छात्र-छत्राओं और उम्मीदवारों ने इन परीक्षाओं में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया है।

 वो क्या बनना चाहते हैं, किस तरह उन्होने तैयारी की, और वो आने वाले वर्षों के छात्र-छत्राओं और प्रतियोगियों के लिये क्या कहना चाहेंगे। 

लेकिन मेरे विचार में जो दूसरी तरह की खबरें इन परीक्षाओं के बारे में छप रही हैं, वो ज्याद महत्वपूर्ण हैं और ये वो समाचार हे जो ये बताते हैं कि किस तरह कुछ छात्र-छत्राओं और प्रतियोगियों ने विपरीत परिस्थितियों में परीक्षाओं में सफलता प्राप्त की है। 

कोई चाय वाले का बेटा है, कोई कामवाली बाई की बेटी है, कोई अत्यंत गरीब है, कोई 30 किलोमीटर रोज चलकर पढ़ने जाता था। किसी ने शानदार शैक्षिक परिस्थितियां न होने पर भी केवल लगन और मेहनत से परीक्षा पास की। इस तरह की खबरें मानवीय क्षमता का उच्चतम स्तर हैं। 

ये समाचार इन बातों को प्रदर्शित करते हैं कि किस तरह लोग अपने माहौल को दृढ़ निश्चय से बदलने को प्रयासरत हैं। ऐसे समाचारों को और प्रमुखता से प्रसारित करना चाहिये।

Manisha सोमवार, 1 जून 2009

आस्ट्रेलिया क्यों जाते हो, यहां क्या कमी है?

विदेश में पढ़ाई

आस्ट्रेलिया से भारतीय छात्रों के साथ रंगभेदीय भैदभाव के कारण होने वाले हमले निंदनीय हैं। 

भूमण्डलीकरण के इस जमाने में एक देश के छात्र दूसरे देशों में जाते रहते हैं। अधिकांश देश दूसरे देशों के छात्रों को अपने विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिये आकर्षित करते रहते हैं जिसके पीछे अपनी साख बढ़ाना तथा संपन्न लोगों से पैसा कमाना भी शामिल है। 

विभिन्न् देशों और संस्थानों की फैलोशिप जैसे कि कॉमनवैल्थ की योजनाओं की वजह से भी एक दूसरे देशों में लोग पढ़ाई के लिये आते-जाते हैं। अत: ऐसी रंगभेदी घटनायें वहां के लोगों के संकीर्ण रवैये को दर्शाती हैं। 



आस्ट्रेलिया तो किसी न किसी कारण से भारत से विवाद करता ही रहता है। कभी हिंद महासागर में भारतीय नौसेना को लेकर, कभी क्रिकेट में किसी  विवाद को लेकर, कभी नाभिकीय संस्थानों को यूरेनियम न देकर आदि।

मेरे विचार में आस्ट्रेलिया की पढ़ाई भारत की पढ़ाई के मुकाबले बहुत अच्छे स्तर की नहीं हैं। 

सिर्फ विदेशों मे पढ़ाई करने के नाम पर वहां जाने की बात है वर्ना भारत के शैक्षिक संस्थानों की दक्षता और स्तर ज्यादा अच्छा है और अब तो भारत में प्राइवेट शैक्षिक संस्थान और विश्वविद्यालय भी खुल गये हैं ऐसे में विदेश में पढ़ाई करने जाने की क्या जरुरत है। 

अपने देश की पढ़ाई करके अपने देश में ही काम करिये।  

एक बात और है कि हर देश के लोगों में राष्ट्रीयता की एक भावना होती जो कि कई लोगों में ज्यादा हो जाती और वो किसी विदेशी को अपनी धरती पर तरक्की करते देख खुश नहीं होते। 

ऐसी भावना हमारे देश में भी है। अत: बाहर के किसी देश में इस तरह की घटनाओं की संभावना बनी रहती है।

Manisha रविवार, 31 मई 2009

ब्लॉग बंद होने पर कोई रास्ता नह


जब से ब्लॉगर पर से हिंदीबात ब्लॉग हटाया गया है तब से कोई भी रास्ता नजर नहीं आ रहा है कि किससे सम्पर्क किया जाये और क्या किया जाये।

तमाम जगह साइटों, फोरमों पर घूम ली पर कोई बात बनती नजर नहीं आ रही है।

मुझे लगता है कि गूगल का ये सिस्टम बहुत ही खराब है जहां पर अच्छे-खासे चलते हुये ब्लॉग को हटा देते हैं और अपील करने की भी कोई जगह नहीं है।

ब्लॉगर पर तमाम तरह की स्पैंम साईटें, पोर्न साइटें और तमाम खराब साइटें चल रही हैं पर उन को न कुछ कहकर सही ब्लॉगरों को परेशान किया जा रहा है।

मैने विभिन्न फोरमों पर देखा कि बहुत सारे लोग परेशान हो और उनके वर्षों पुराने ब्लॉग हटा दिये गये हैं वो भी बिना किसी सूचना के।

पूरा सिस्टम आटोमैटिक होने कि वजह से गड़बड़ है। देखते हैं क्या होता हैं, फिलहाल तो मैं अब हिंदीडायरी.कोम पर लिखूंगी।

Manisha शुक्रवार, 22 मई 2009

अधिकांश ट्रैवल साइटें चोरी की सामग्री से चल रही हैं


कल हम लोगों नें बच्चों की गरमियों को दौरान कुछ पर्यटन स्थलों को भ्रमण के लिये इंटरनेट पर विभिन्न ट्रैवल साइटों से उन स्थानों के बारे में जानकारी लेने की कोशिश की । 

ऐसे में गूगल के माध्यम से किसी भी स्थान को खोजने पर आने वाली अधिकांश वेबसाइटों पर वही-वही जानकारी मिली। 

यहां तक की हर शब्द और वाक्य  सब वही के वही । 

ऐसा लगता ही गूगल ऐडसेंस का फायदा लेने के लोगों ने पर्यटन वेबसाइटें  खोल रखी हैं और इधर-उधर से जानकारी चुराकर साइट तैयार करके बना दी गई हैं । 

1-2 साइटों को छोड़कर किसी भी साइट से कोई नई बात पता नहीं लगी । किसी पर कोई विस्तृत जानकारी नहीं है। 

बस पर्यटन ब्लॉग ही हैं जिन पर कुछ अलग सी जानकारी है वर्ना अधिकांश ट्रैवल बेवसाइटें किसी भी स्थान की जानकारी के लिये चोरी की सामग्री से चल रही हैं। 

इस को देखने के लिये आप गूगल में किसी भी स्थान को खोजने को कोशिश करिये और प्रथम 10 परिणामों को ब्राउजर में खोलकर देखिये, दस में से आठ में आप को एक जैसी बात लिखी मिलेगी।

Manisha सोमवार, 18 मई 2009

15वीं लोकसभा चुनाव परिणाम – कुछ आंकलन


15वीं लोकसभा चुनावों के परिणाम कल आ चुके हैं और संप्रग को वापस से सरकार बनाने के लिये मतदाताओं द्वारा चुना गया है। आने वाले कई दिनों में राजनीतिक विश्लेषक और राजनीतिज्ञ अपने – अपने विश्लेषण और निष्कर्ष निकालते रहेंगे और ऐसे समय में आम आदमी भी अपने हिसाब से कुछ सोचता है। 

मेरा भी इन लोकसभा चुनावों के परिणामों को लेकर कुछ आंकलन  है। 


vote counting
  
 
  1. मंहगाई जनता कितनी ही परेशान क्यों न हो, किसी भी चुनाव में मंहगाई को मुद्दा नहीं होती है।
  2. आतंकवाद भी इस देश में कोई मुद्दा नहीं है।
  3. मंदिर-मस्जिद, हिदु-मुस्लिम, मेरी जाति-तेरी जाति और आरक्षण की राजनीति के दिन पूरे हो गये हैं अब लोगों को विकास चाहिये, इसलिये इस बार वो दल अपने-अपने यहां जीत गये जो विकास के नाम की राजनीति कर रहे हैं। अब जनता को विकास चाहिये, जो विकास करेगा वो दुबारा जीतेगा। विकास को भूलकर खाली जातिवादी राजनीति और आरक्षण के झुनझुने पकड़ाने वाले नेता हार गये या फिर हाशिये पर आ गये हैं। 
  4. इंटरनेट द्वारा या बहुत हाई-फाई चुनाव प्रचार किसी काम का नहीं है। जनता चाहती है कि नेता परंपरागत रुप से उनसे रुबरु होकर वोट मांगे। इंटरनेट भ्रमण करने वाले और एसएमएस पाने वाले लोग वोट डालने नहीं निकलते हैं खासकर गर्मियों में, अगर चुनाव सर्दियों में हो तो फिर भी निकल सकते हैं।
  5. भाजपा जिसे पहले शहरी पड़े-लिखे मध्यम वर्ग की पार्टी कहा जाता था, शहरों में ही सबसे ज्यादी हारी है। इसका मतलब है कि भाजपा की नीतियां मध्यम वर्ग को समझ नहीं आ रही हैं। 
  6. भाजपा जीतने के लिये किसी भी प्रकार के समझौते को तैयार थी, इसका उदाहरण महा भ्रष्ट नीरा यादव को केवल कुछ वोटों के लालच में अपने दल में शामिल करने का है। 
  7. भाजपा में काफी लोग अपनी ही पार्टी को हराने के लिये काम करते है।
  8. पुराने एक ब्लॉग पोस्ट में मैंने कहा था कि भारत में सफल नेता बनने  लिये भारत को जानना जरुरी है और इसके लिये सघन भारत भ्रमण जरुरी है। इससे जमीनी स्तर की जानकारी मिलती है राहुल गांधी पिछले कुछ समय से ऐसा ही कर रहे हैं और उनका इसका फायदा मिल रहा। इसके विपरीत भाजपा के अधिकांश नेता और कुछ कांग्रेसी भी टीवी चैनलों की बहस में भाग लेकर अपनी नेतागिरी चमकाते हैं और असली चुनाव में नाकाम रहते हैं।
  9. अब विकास की राजनीति के दिन हैं खाली विचारधारा की बात करके या उर्दू लागू करके, बाबरी मस्जिद की बात छेड़के आप वोट नही पा सकते।
  10. भाजपा को अपने आप को नैतिक रुप से और विचारधारा से सबल बनाना चाहिये सफलता अपने आप मिल जायेगी। अगर भाजपा और पार्टियों जैसा ही आचरण करेगी तो लोग असली पार्टी को ही वोट देगें न कि भाजपा को। 
  11. कांग्रेस ने नये लोगों को काफी मौका दिया और इसका फायदा उसे मिला है।
  12. कांग्रेस को मीडिया का काफी सहारा मिला। मीडिया द्वारा भाजपा की बातों को उछालना और छोटे दलों की ब्लैकमेलिंग के खिलाफ महौल बनाना कांगेस को फायदा दे गया।
  13. भाजपा को मीडिया को मैनेज करना नहीं आता, अधिकांश भाजपाई अंग्रेजी समाचार चैनलों पर अंग्रेजी में बात करते हैं और जो चैनल भाजपा और हिन्दुवादियों का मजाक बनाते हैं उन्हीं पर भाजपाई ज्यादा मेहरबान रहते हैं और अपना नुकसान कराते हैं।

Manisha रविवार, 17 मई 2009

चुनाव आयोग ने पप्पू बनाया 

कल जब मैं और मेरे पति मतदान के लिये निर्धारित स्थान पर पहुंचे तो पता चला कि हमारा नाम वोटर लिस्ट से गायब है। हमारे पास वोटर आईडी कार्ड था, पहले भी वोट डाला हुआ है, लेकिन इस बार पता नहीं कैसे सोसाईटी के अधिकांश लोगों का नाम गायब था। 


Voter Id Card


यानी कि चुनाव आयोग ने ही पप्पू बना दिया। ऐसी प्रशासनिक भूलों के खिलाफ आम आदमी कुछ नहीं कर सकता है। क्या ऐसी व्यवस्था नहीं हो सकती कि मौके पर ही प्रमाण देख कर वोटर लिस्ट में नाम जोड़े जा सकें और नाम काटने वाले अधिकारी के खिलाप कार्यवाई की जा सके। 

चुनाव आयोग जनता और नेताओं पर तो तमाम तरह की बंदिशें और संहिताये लागू करता है, लेकिन ऐसी घटनायें जो हर चुनाव में होती हैं कि नाम गायब हो गये उसमें कुछ भी शायद नहीं करता है।

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Manisha शुक्रवार, 8 मई 2009

बीमारु प्रदेश पृथ्वी को बचा रहे हैं


आज 22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस पर दिल्ली सरकार ने एक विज्ञापन जारी करके लोगों का आव्हान किया है कि लोग आज के दिन केवल एक घंचे के लिये शाम को 8.30 बजे से 9.30 बजे तक अपनी बिजली बंद रख कर पृथ्वी पर होने वाले पर्यावरणीय खतरे से बचाने में मदद करें। 

इससे पहले भी पिछले महीने पूरी दुनिया में एक दिन इसी वक्त पर लोगों ने बिजली बंद कर के पृथ्वी को बचाने की पहल में सहयोग दिया था। 

Earth Hour

 
अगर देखा जाये तो भारत का अधिकांश हिस्सा खासकर बीमारु कहे जाने वाले प्रदेश (बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश) इस तरह से तो पृथ्वी को वर्षों से बचाते आ रहे हैँ, क्योंकि इन प्रदेशों में रोजाना 6 से 18 घंटे तक बिजली आती ही नहीं है तो पृथ्वी को नुकसान पहुंचने का सवाल ही नहीं उठता। 

जिन जगहों पर पूरे दिन बिजली आती है जैसे कि दिल्ली, मुंबई और सभी प्रदेशों के मुख्यंमंत्रियों के गृह जनपद उनको छोड़कर लोगों से 1 घंटे के लिये बिजली बंद करने की बात कहना उनके जले पर नमक छिड़कना है। इस गर्मी के मौसम में आम भारतीय बिना बिजली के कैसे दिन काटते हैं, वो ही जानते हैं। 
 
इस तरह की बिजली की 1 घंटे की कटौती की बात भी एक प्रकार से अमीर देशों और मौज करने वालों का एक शोशा ही मालूम होती है। 

अफ्रीका और तीसरी दुनिया के देशों को, विकसित राष्ट्र जिन्होनें अपनी विलासिता से पृथ्वी को नुकसान पहुंचाया है, अब कमजोर और अल्प विकसित देशों पर पृथ्वी को बचाने का दबाव डाल रहे हैं। 

पर्यावरण की बात करना भी एक नया फैशन बन गया है।

Manisha बुधवार, 22 अप्रैल 2009

मंहगाई और आतंकवाद चुनाव में मुद्दा नहीं


अभी तक लोकसभा चनावों के लिये चल रहे चुनाव-प्रचार को देखकर तो ऐसा लगता है जैसे कि मंहगाई और आतकंवाद कोई मुद्दा ही नहीं है। कोई भी राजनीतिक दल इन के बारे में बात नहीं कर रहा है। 

रोजगार, मंहगाई, शिक्षा, विकास, आर्थिक संकट जैसे मुद्दों से मुंह चुराकर राजनीतिक दल पता नहीं कहां से कंधार कांड और बाबरी मस्जिद जैसे पुराने बासी मुद्दे उठा लाये हैं और देश की जनता के उपर जबर्दस्ती इनको मुद्दा बनाकर थोप रहे हैं। 

देश की जनता इस कुछ नया पाना चाहती है लेकिन लगता है की देश के नेताओं के पास कोई नयी बात है नहीं कहने को इसलिये दस-बीस साल पुरानी बातों के आधार पर चुनाव प्रचार कर रहे हैं। मीडिया भी ऐसी बातें नहीं उठा रहा है।

Manisha रविवार, 19 अप्रैल 2009

हमारे आसपास के बाल-श्रमिक


भारत में बाल श्रम पर प्रतिबंध है। इसको लेकर सरकार गंभीर है और लगातार अपने प्रयास करती रहती है। बाल श्रम पर रोक के मामले में पश्चिमी देशों का रवैया बहुत सख्त है और उनके अनुसार बालक से किसी भी प्रकार का काम कराना गलत है। 

लेकिन भारत के सामाजिक ढांचे में इस तरह की बात नहीं की जा सकती है। यहां पर कुछ करने पर बच्चों  को शाबाशी दी जाती है मसलन यहां पर खेतों में काम करते मजदूरो के साथ-साथ उनके बच्चे भी किसी न किसी रूप में मदद करते हैं। घरों में बच्चों को काम करना सिखाया जाता है। 

भारत के सामजिक वातावरण में अगर बच्चा अपने मां-बाप को गिलास में अगर पानी ला कर पिला दे तो सभी उसकी प्रशंसा करते हैं लेकिन पश्चिम में यही बाल श्रम हो जाता है।

 
हमारे आसपास के बाल-श्रमिक Stop Child Labour



मैं यहां पर जो बताने जा रही हूं वो हमारे घर के आसपास के बच्चों के बारे में है जिनको मैं रोज काम करते देखती हूं और सोचती हूं कि ये बाल श्रमिक की श्रेणी में आते हैं या नहीं। 

दरअसल हमारी सोसाइटी में चौकीदार, धोबी, और दूध बेचने आने वाले के बच्चे अपने-अपने पिता के काम में हाथ बंटाते हैं। चौकीदार के दो लड़के करीब 10 और 12 साल के सुबह गाड़ियां साफ करते हैं और अपने पिता की आमदनी बढाते हैं। 

धोबी का पुत्र प्रेस करने के कपड़े ले जाता है और प्रेस हो जाने के बाद देने आता है। 

एक दूध वाला  है जिसकी लड़की और लड़का अक्सर सोसाइटी के फ्लैटों में दूध पहुंचाने में पिता की मदद करते हैं। 


इन सबको देखकर लगता तो है कि ये लोग ये काम न करें लेकिन फिर ये ख्याल भी आता है कि अगर ये लोग अपने पिता की मदद कर के आमदनी बढ़ा रहे है तो इनमें इनको भी तो फायदा है। दूसरी बात ये है कि ये सब बच्चे पढ़ने जाते हैं और शायद इसी आमदनी की वजह से पढ़ाई का खर्च निकल रहा है। 

तो अगर ये लोग मेहनत करके गरीबी ले लोहा ले रहे हैं तो अच्छा ही कर रहे हैं। 

मैंने अड़ोस-पड़ोस में कई लोगों से बात की, पर सब लोग उनकी इस तरह परिवार को मदद करने को सराहते ही हैं यानी इस तरह के काम को सामाजिक स्वीकृति है। 

लोगों का कहना है कि अगर ये लोग दिन भर काम करते तब गलत था लेकिन इस तरह थोड़े सा काम करने से एक तो आमदनी बढ़ रही है, दूसरे कुछ काम सीख रहे है जो आगे काम आयेगा और तीसरे ये लोग किसी गलत संगत में फंसने से बच रहे है क्योंकि अपना कुछ समय तो इस तरह से व्यतीत कर रहे है। 

तो मैं निश्चय नहीं कर पा रही हूं कि ये गलत हो रहा है या सही।

Manisha सोमवार, 13 अप्रैल 2009

खोखली होती भारत में परिवार संस्था


खोखली होती भारत में परिवार संस्थापिछले कुछ समय से समाचार पत्रों में छपने वाले कुछ समाचारों से ऐसा लगता है मानो भारत में परिवार नाम की संस्था पर ग्रहण लग गया है। 

पहले मुंबई, फिर पंजाब, उसके बाद दिल्ली और भी न जाने कहां कहां से ऐसी खबरें आईं कि विश्वास नहीं हुआ। 

ये खबरें थीं सगे बाप द्वारा अपनी ही बेटी से जबर्दस्ती या सहमति से सेक्स संबंध स्थापित करने की। पिछले कुछ समय से ये समाचार कुछ ज्यादा ही आ रहें हैं। 

परिवार जहां बच्चों को प्यार, संस्कार और सुरक्षा मिलनी चाहिये  वहां ये सब होगा तो परिवार का ही क्या मतलब रह जाता है। दुसरी ओर  इंदौर और पंजाब से सी खबरे आईं कि अपने मां-बाप के कत्ल के लिये सगे पुत्र ने ही सुपारी दी। 

कई जगह ऐसा काम पुत्रियों द्वारा भी किया गया है। 

इसके अलावा भतीजे द्वारा चाचा-ताउ की हत्या की खबरें तो आम हो चुकी हैं। पैसे के लिये अब किसी रिश्ते का कोई मोल नहीं रह गया हैं ऐसा लगता है। 

संपति और पैसै का आखिर क्या करेंगे जब अपना ही कोई नहीं होगा। पत्नी द्वारा पति की हत्या करना या कराना या पति द्वारा पत्नि की हत्या करना रोज सुर्खियों में होता है। 

तांत्रिकों को फेर में पड़कर अपने सगे संबंधियों या अड़ोस-पड़ोस के बच्चों की हत्या करना भी आजकल काफी सुना जाता है। एक जगह तो मां-बाप ने पुत्र पाने के ले लिये पुत्री का हत्या करदी और कई जगह भतीजे-भांजियों की भी बलि लोग चढाते हैं। 

इन तांत्रिकों के चक्कर में कई घर बरबाद हो गये लेकिन तांत्रिकवाद अब तो फैलता ही जा रहा है और कई समाचार चैनलों तक पर तांत्रिक दिखने लगे हैं। पढ़े-लिखे और शहरी लोग भी इन सब चक्करों में पड़ रहे हैं।

पूरे परिवार के द्वारा आत्महत्या की खबरें अब बहुत आम हो चुकी हैं और आत्महत्या के मामले में भारत दुनिया में नंबर एक हो चुका है। 

परिवार का मुखिया छोटे-छोटे मासुमों को भी मारकर खुद आत्महत्या कर लेता है। जिन मां-बाप को इन बच्चों को पोसना चाहिये वो ही इन्हें मार रहे हैं।

समाज का बन्धन कम हो गया है। हर कोई मन-सर्जी से अपनी जिन्दगी जीना चाहता है। 

एकाकी पन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के दौर में ऐसा लगता है कि भारत में अब परिवार की संस्था जो समाज का सबसे मजबूत हिस्सा है खतरे में है।

Manisha रविवार, 12 अप्रैल 2009

स्कूल वाले फीस बढ़ाते ही जा रहे हैं 


पिछले 15-20 दिनों से दिल्ली और उसके आसपास के सभी निजी स्कूलों के छात्रों के अभिभावक आन्दोलन की स्कूल वाले फीस बढ़ाते ही जा रहे हैं राह पर हैं पर कोई सुनवाई नहीं हो रही है। 

आंदोलन की वजह है इन निजी विद्यालयों द्वारा मननानी तरह से मासिक फीस में बढ़ोतरी। 

स्कूलों का कहना है कि उन्हें शिक्षकों को छठे वेतन आयोग द्वारा वेतन बढ़ाने के कारण ज्यादा वेतन देना पढ़ेगा इसलिये फीस में वृद्धि आवश्यक है। 

कई वर्षों से ये स्कूल हर वर्ष इसी प्रकार फीस बढ़ाते आ रहे हैं, इसको लेकर कुछ लोग दिल्ली उच्च न्यायालय भी गये थे लेकिन वहां भी 40 प्रतिशत वृद्धि को मंजूरी मिल गई थी। 

इस वर्ष निजी स्कूलों को फीस में वृद्धि के लिये सरकार ने 500 रुपये तक बढ़ाने की मंजुरी दे दी थी। इसी बात का फायदा उठा कर और वेतन आयोग का बहाना लेकर पूरे राजधानी क्षेत्र में निजी पब्लिक स्कूलों ने अनाप-शनाप फीस वृद्धि कर दी है। 

इस बात से परेशान होकर अभिभावक फीस कम कराने के लिये आंदोलनरत हैं लेकिन कहीं सुनवाई नहीं हो रही है। 

इसका कारण है कि ये स्कूल बड़े-बड़े लोगो द्वारा चलाये जाते हैं जिनकी पहुंच बहुत ऊपर तक होती है।  सीबीऐसई (CBSE) जो इन को मान्यता देता है, इस मामले में खामोश है और राज्य सरकारों का इन विद्यालयों पर कोई अंकुश नहीं है। 

ये स्कूल फीस वृद्धि के अलावा स्कूल ड्रेस, कॉपी-किताबों की बिक्री से भी कमाई करते हैं।  वास्तव में ये सब कई प्रकार की समानांतर शिक्षा प्रणालियों की वजह से होने वाली परेशानियां हैं। 

शिक्षा से सरकारों ने अपने हाथ खींच रखे हैं जिससे शिक्षा मंहगी होती जा रही है और आम आदमी परेशान है। ये स्थिति शायद पूरे देश में है।

Manisha रविवार, 5 अप्रैल 2009